नैतिकता और मानवीय मूल्य : प्रशासन में उपयोगिता (Ethics and Human Values : Importance in Administration)
Admin Comment: श्री धर्मेंद्र स्वामी (श्री गंगानगर) का आर्टिकल जो आरएएस (RAS), सिविल सेवा तथा राजस्थान एवं भारत की विभिन्न परीक्षाओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।
श्री धर्मेंद्र स्वामी (श्रीगंगानगर) का आर्टिकल जो आरएएस (RAS), सिविल सेवा तथा राजस्थान एवं भारत की विभिन्न परीक्षाओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।
मनुष्य मूलतः स्वार्थी प्राणी है।” ऐसा मानना है पश्चिमी विचारक थॉमस हॉब्स का। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा सकते हैं, किंतु सूक्ष्म रूप से विवेचन किया जाए तो यह बात सही भी है। अब दिमाग में यह प्रश्न कौंधता है कि भला एक मा का अपने पुत्र के प्रति क्या स्वार्थ होगा जो उसे वात्सल्य भाव से प्रेम करती हैं। लेकिन उसके प्रेम के पीछे भी आत्म-सुख का भाव छिपा हुआ है। यहां यह स्पष्ट करना भी उचित होगा कि यह स्वार्थ उच्च कोटि का है लेकिन मूलतः स्वार्थ ही है। मनुष्य की इसी स्वार्थी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए कुछ नियमों की आवश्यकता होती है इन्हीं नियमों का अक्ष मानवीय मूल्यों और नैतिकता के रूप में दिखाई देता है।
नैतिकता वह आदर्श नैतिक व्यवस्था है जो समाज के सदस्यों के लिए नैतिक नियमों और आचरण के प्रतिमानों का निर्धारण करती है तथा यह प्रयास करती है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति इन्हीं नैतिक नियमों और प्रति मानव का अनुसरण करे।
यदि धर्म का अर्थ कर्तव्य पालन के संदर्भ में लिया जाए तो धर्म और नैतिकता परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची अथवा समानार्थक शब्द हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो मनुस्मृति में भी कहा गया है:
“धृतिः क्षमा दम अस्तेयम् शौचंम इंद्रिय निग्रहः
धी विद्या सत्यम् अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।”
—मनुस्मृति
इस प्रकार धर्म के भी दस लक्षण बताए गए हैं यथा— क्षमा करना, चोरी न करना, साहस, शुद्धता, सत्य, अक्रोध, इंद्रियों पर नियंत्रण आदि जो मूलतः नैतिक व्यवस्था के ही नियम हैं| इसी प्रकार महात्मा गांधी का कथन है कि धर्म (नैतिकता) विहीन राजनीति मृत देह के समान है जिसे जला देना चाहिए। तुलसीदास जी ने भी कहा है—
“परहित सरिस धर्म नहिं भाई परपीड़ा सम नहिं अधमाई।”
—तुलसीदास
परपीड़ा और परहित मूलतः सहिष्णुता, समानुभूति जैसी उच्च नैतिक मूल्यों के समानार्थक हैं।
मानवीय मूल्यों के संदर्भ में विचार करें तो हम पाते हैं कि मानवीय मूल्य नैतिक व्यवस्था का ही एक आग है। ये दोनों एक दूसरे से अलग अलग न होकर परस्पर अंतर्संबंधित हैं। सामान्य शब्दों में कह सकते हैं कि जिसका जितना महत्व है उतना ही उसका मूल्य है, लेकिन नीतिशास्त्र के संदर्भ में निहित है कि जो उचित है वह मूल्यवान है और जो अनुचित है वह मूल्यहीन।
मानवीय मूल्य देश-काल और वातावरण के अनुरूप परिवर्तनशील होते हैं। उदाहरणार्थ, एक और जहां कृषि उत्पादक क्षेत्रों में शाकाहारी होना एक मूल्य है, वहीं दूसरी ओर टुंड्रा जैसे अनुपजाऊ बर्फीले इलाकों में मांसाहार का मूल्य में शामिल होना, यही दिखाता है। इसी प्रकार प्राचीन काल में सती प्रथा एक नैतिक मूल्य के रूप में स्थापित थी, लेकिन वर्तमान आधुनिकता और उदारीकरण के दौर में यह अनैतिक और कानूनी रूप से अपराध है।
अब प्रश्न उठता है कि मानवीय मूल्य वस्तुनिष्ठ है या आत्म निष्ठ? मूल्यों के वस्तुनिष्ठ होने का अर्थ है कि समाज के सभी व्यक्ति इन मूल्यों को बिना किसी हिचकिचाहट के पूर्णतः स्वीकार करते हैं वही मूल्यों के आत्मनिष्ठ होने का अर्थ है समाज के प्रतयेक व्यक्ति की मूल्यों को लेकर राय भिन्न-भिन्न हो सकती है। उदाहरणार्थ सहिष्णुता, परोपकार, करुणा, दया, सहानुभूति, सहानुभूति, साहस आदि मूल्य सार्वभौमिक है, वहीं दूसरी ओर जातिवाद, तलाक, पर्दाप्रथा, तृतीय लिंगियों के अधिकार के अधिकार जैसे मूल्यों को लेकर तेरी गत टकराव स्पष्ट नजर आता है। अतः हम कह सकते हैं कि मूल्यों को पूर्णता निरपेक्ष होकर वस्तुनिष्ठ या आत्म निष्ठ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हर समाज अपने भिन्नताओं के साथ इन दोनों छोर के बीच कहीं स्थित होता है।
अब अगला प्रश्न है कि समाज में नैतिक मूल्यों का विकास किस प्रकार संभव है? इस आधार पर देखा जाए तो नैतिक मूल्यों के विकास में परिवार, समाज और विद्यालय की अहम भूमिका होती है। कहा भी जाता है कि परिवार व्यक्ति की प्रथम पाठशाला होती है और मां प्रथम शिक्षक। परिवार में आधारभूत मूल्यों का विकास होता है। इन्हें व्यक्ति अनुकरण व निर्देशों के द्वारा सीखता है, जैसे– सहयोग की भावना, ईमानदारी, सच बोलना आदि। यदि पारिवारिक परिवेश रूढ़िवादी तथा हिंसा, घृणा और अपराध की प्रवृत्ति से युक्त है तो लगभग संभावना है कि बच्चा इन्हीं नकारात्मक मूल्यों को ग्रहण करेगा। इस प्रकार प्रथमतः व्यक्ति के नैतिक होने के लिए आवश्यक है कि पारिवारिक परिवेश उच्च नैतिक मूल्यों से युक्त हो।
द्वितीयतः विद्यालय व्यक्ति के नैतिक मूल्यों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षक बच्चों के लिए आदर्श व्यक्तित्व होता है जिसका अनुकरण बच्चे शब्दशः करते हैं। अतः शिक्षक के व्यक्तिगत मूल्यों का बच्चों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। दूसरा यह कि विद्यालय में सहपाठियों और विशेषकर मित्र समूह में परस्पर नैतिक मूल्यों का विकास होता है, जैसे– सहयोग भावना, प्रतिबद्धता, समर्पण भावना आदि। इसके अतिरिक्त विद्यालय में संज्ञानात्मक रूप से बच्चों को अनुशासन, समय बद्धता, लगन, निरंतरता, धैर्य, राष्ट्रप्रेम, सहनशीलता, सहिष्णुता जैसे गुण सिखाए जाते हैं।
तृतीयतः समाज के माध्यम से व्यक्ति में दया, करुणा, सहानुभूति, सहानुभूति, परोपकार, असहिष्णुता, सहयोग, सेवा भावना, सहनशीलता जैसे नैतिक मूल्यों का विकास होता है जो समाज और उस व्यक्ति के परस्पर उचित तारतम्य, अस्तित्व और विकास के लिए आवश्यक है।
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वस्थ संचालन के लिए प्रशासन में नैतिक मूल्यों का होना अत्यंत आवश्यक है। एकबारगी यह लग सकता है कि जहां प्रशासन तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर कार्य करता है वहां नैतिक मूल्यों को शामिल करने का क्या औचित्य है? वर्तमान 21वीं सदी में लोक कल्याण राज्य की स्थापना और सामाजिक न्याय जैसी धारणाओं पर बल दिया जा रहा है, अतः आवश्यक है कि प्रशासक उच्च नैतिक मूल्यों से संबंद्ध हो। समानता, न्याय, मानवाधिकार, अनामिता, गैरपक्षधरता, तटस्थता आदि प्रशासनिक मूल्य हैं। गांधीजी का सर्वोदय का सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण की बात करता है तो वहीं कन्फ्यूशियस ने भी सदाचार और नैतिकता को लोकतंत्र का आधार माना था। अगर हम ब्रिटिश कालीन प्रशासनिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करें तो उस समय भी कुछ मूल्य दृढ़ता के साथ परिलक्षित होते हैं, जैसे– सत्यनिष्ठा, इमानदारी, अनुशासन राजभक्ति, ब्रिटिश क्रॉउन के प्रति प्रतिबद्धता व संबद्धता आदि, लेकिन जनता / वंचित वर्ग के प्रति करुणा, दया, सहानुभूति, समानुभूति, परोपकार, पारदर्शिता, सेवा भावना जैसे मूल्यों का अभाव था, क्योंकि औपनिवेशिक शासन मूलतः शोषक था। स्वतंत्र और गणतंत्र भारत में प्रशासन को जनहितैषी बनाने के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं, जैसे– आचरण नियमावली, आचार संहिता, संविधानिक प्रावधान, प्रशिक्षण के दौरान नैतिकता और मानवीय मूल्यों से संबंधित ज्ञान व प्रशिक्षण व्यवस्था, सिविल सेवाओं के पाठ्यक्रम में नीतिशास्त्र विषय को संबद्ध करना, सूचना का अधिकार जैसे कानूनों का निर्माण आदि। लेकिन वर्तमान में भी प्रशासनिक नैतिक संकट एक गंभीर चिंता का विषय है। प्रशासन के समक्ष आजादी के 70 वर्ष बाद भी अनेक नैतिक चुनौतियां उपस्थित हैं, जैसे– ब्रिटिश कालीन अभिजात्यवाद के तत्वों की उपस्थिति, सामंती मानसिकता, वंचित वर्गों के प्रति संवेदनशीलता की कमी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, लालफीताशाही, सोशल मीडिया के कारण अनामिता का संकट आदि।
अब हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि आखिरकार किस प्रकार इन नैतिक चुनौतियों का समाधान किया जाए ताकि महात्मा गांधी के आदर्श भारत की स्थापना और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में प्रशासन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके। इन चुनौतियों का समाधान मुख्यतः तीन स्तरों पर संभव है, यथा व्यक्तिगत स्तर, सामाजिक स्तर और प्रशासनिक सुधार आदि। प्रथमतः व्यक्तिगत स्तर पर एक प्रशासनिक अधिकारी को चाहिए कि वह महात्मा गांधी द्वारा सुझाए गए ‘प्रबुद्ध स्वहित'(Self Enlightenment) के मार्ग का अनुसरण करते हुए स्वधर्म स्वकर्तव्य पालन और स्वानुशासन का पालन करे। इस मार्ग पर बेशक कुछ जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा परंतु अंततः जिस चरम सुख की अनुभूति होगी वह अन्य सभी भौतिक सुखों से कहीं उत्कृष्ट व स्थायी होगी। प्रशासनिक अधिकारी को संविधान की अंतरात्मा को ध्यान में रखते हुए स्वयं को जनता का शासक नहीं अपितु सेवक समझना चाहिए क्योंकि संप्रभुता जनता में निहित है। प्रशासक को जनता विशेषकर वंचित वर्गों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। अतः प्रशासकों में संवेदनशीलता का विकास हो सके इसलिए उन्हें सामाजिक संवेदनशीलता से युक्त कहानियां, उपन्यास आदि का अध्ययन करना चाहिए व संवेदनशीलता से भरपूर फिल्में आदि देखनी चाहिए।
द्वितीयतः सामाजिक स्तर पर चाहिए कि समाज का हर नागरिक अपने अधिकारों को समझे और प्रशासन के शोषण का शिकार न हो, अपितु इसके विररुद्ध अपनी आवाज बुलंद कर प्रशासन की जवाबदेही व पारदर्शिता सुनिश्चित करे। मीडिया इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। साथ ही समाज का हर नागरिक अपने किसी भी स्वार्थ की पूर्ति हेतु प्रशासनिक भ्रष्टाचार की संस्कृति को बढ़ावा न दे बल्कि जो चंद व्यक्ति ऐसा कृत्य करें उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए।
तृतीयतः प्रशासनिक स्तर पर भी कुछ महत्वपूर्ण सुधारों की दरकार है, जैसे प्रशासनिक अधिकारियों के संबंध में सोशल मीडिया को लेकर कुछ कानून बनाए जाएं ताकि अनामिता के मूल्य को स्थापित करने हेतु सोशल मीडिया पर प्रसिद्धि पाने की इच्छा पर अंकुश लगाया जा सके। चयन प्रक्रिया के पाठ्यक्रम में नैतिक मूल्यों से युक्त अध्याय शामिल किए जाएं। प्रशासनिक अधिकारियों में नैतिक मूल्यों के विकास हेतु उन्हें वंचित वर्ग से अंतर्क्रिया करने उनके बीच समय व्यतीत करने हेतु बाध्य किया जाए ताकि वे उनके दुख-दर्द, परेशानियों को गहराई से समझ सकें व उनमें वंचित वर्ग के प्रति समानुभूति (Empathy) का विकास हो सके। इसके अतिरिक्त आवश्यक है कि प्रशासन में राजनीति का हस्तक्षेप को कम किया जाए। सत्यनिष्ठा के साथ कर्तव्यपालन करने वाले अधिकारियों को लगातार स्थानांतरण के द्वारा हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। उच्चस्थ व अधीनस्थ अधिकारियों के मध्य परस्पर उपयुक्त कार्य संस्कृति के निर्माण हेतु शक्ति संतुलन भी अपेक्षित है।
अंततः निष्कर्ष यह है कि इस सामाजिक व्यवस्था के स्वस्थ संचालन उत्थान हेतु नैतिक मूल्य आवश्यक है किंतु यह समय के साथ परिवर्तनशील होने चाहिए ताकि इन पर रूढ़िवादिता हावी ना होने पाए। एक प्रशासन को भी अपना सर्व कर्तव्य पालन इस भाव से करना चाहिए कि — “मेरा मुझमें कुछ नाहिं, जो कुछ है सो तोर, तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।”
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