मृत्युभोज पर प्रतिबंध
Prepared for Ink by Yatindra Porwal (Chittorgarh)
राजस्थान सरकार द्वारा हाल ही में मृत्यभोज के आयोजन पर प्रतिबंध के लिए राज. मृत्यु भोज निषेध अधिनियम 1960 की सख्ती से पालन के निर्देश दिए गए है जो कि एक स्वागत योग्य कदम है।
इस निर्देश के पक्ष में तर्क
- आर्थिक बोझ में कमी – कई बार ऋण लेकर भोज देना पड़ता है, पिता की मृत्यु के बाद छोटे बच्चो पर इसका बोझ पड़ता है, उसमे कमी आएगी।
- सामाजिक दबाव में कमी – मृत्युभोज को सोशल स्टेट्स से जोड़ कर देखे जाने से शोक संतप्त परिवार पर भोज देने का दबाव रहता है। जातिगत टिप्पणियां, दूसरों के यहां तो मृत्यभोज खा लेने किंतु स्वयं की बारी आने पर भोज नहीं देने की उलाहना आदि दबाव नियम बनने से कम होंगे।
- COVID-19 संक्रमण को देखते हुए भी यह फैसला स्वागत योग्य है।
- सांविधानिक प्रावधान भी सरकार को रीति रिवाजों, धार्मिक मामलों में सकारात्मक हस्तक्षेप की अनुमति देते है।
- समाज के कई वर्गो द्वारा भी इस प्रतिबंध की मांग – कई संस्थानों, एनजीओ, जैन समाज इत्यादि द्वारा स्वयं इस कुप्रथा का पालन नहीं करने का संकल्प लिया गया है। अतः यह निर्णय सरकार द्वारा थोपा गया निर्णय न होकर एक लोकप्रिय मत है।
- प्राचीन काल में सिर्फ राजा की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी द्वारा स्वयं के पगड़ी दस्तूर के उपलक्ष में भोज दिया जाता था, आमजन द्वारा नहीं, राजशाही के समाप्त होने के पश्चात तो यह परम्परा निरर्थक ही है।
- मृत्युभोज की नैतिक दुविधा – जब खिलाने वाला ही अश्रुपूरित नेत्र और शोकमग्न मन से खाना खिला रहा हो तो खाने वाले कैसे उसे खुशी खुशी खा सकते है।
हालांकि इस प्रतिबंध के विपक्ष में कुछ तर्क इस प्रकार है –
- अधिनियम के 60 वर्षों बाद भी इसका क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हो पाया है।
- मृत्युभोज के आयोजन से शोक को भूल कर जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। सभी परिचित व्यक्तियों के आने से सांत्वना मिलती है।
- ऐसा माना जाता है कि इस से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतः यह पितृ ऋण चुकाने का माध्यम माना जाता है।
- मृत्यु भोज के अन्य विकल्प के रूप में परसादी या अन्य नाम से भोज देना, जिससे प्रतिबंध का क्रियान्वयन कठिन हो सकता है।
- मृत्युभोज लोगों की भावनाओं और रीति रिवाजों का विषय है, इसे समाज द्वारा ही नियमित किया जाना चाहिए, सरकार द्वारा नहीं।
उपर्युक्त चर्चा से निष्कर्ष यही निकलता है कि वर्तमान में मृत्यु भोज एक ऐसी कुप्रथा बन चुकी है जो अपने मूल स्वरूप से विकृत हो चुकी है। यह शोकाकुल परिवार को और अधिक शोकग्रस्त करने, मानसिक व आर्थिक रूप से शोषण करने वाली सिद्ध हुई है। अतः इस पर प्रतिबंध लगाना एक सकारात्मक कदम प्रतीत होता है। हालांकि इसके क्रियान्वयन में कुछ चुनौतियां है जिन्हे एक कुशल प्रशासनिक तंत्र द्वारा सफल बनाया जा सकता है। सिर्फ पंच, सरपंच या पटवारी ही नहीं बल्कि हम सभी की भी यह जिम्मेदारी है कि इस अधिनियम का क्रियान्वयन सुनिश्चित हो।
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