यूरोप में धर्म सुधार (Reformation in Europe): रिफॉर्मेशन का अर्थ, कारण, प्रमुख सुधारक एवं परिणाम
आंदोलन सोलहवीं शताब्दी से पूर्व मध्यकालीन यूरोप का समाज चर्च के बंधनों में जकड़ा हुआ था। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक चर्च के प्रभाव में रहता था। ईसाई चर्च का संगठित तंत्र रोम से संचालित था। पादरियों को असीमित विशेषाधिकार प्राप्त थे। इन पादरियों के विशेषाधिकार का विरोध करने की कल्पना, सामान्य जन तो क्या राजा भी नहीं कर सकता था। पुनर्जागरण से सामंतवाद और उससे जुड़ी आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक तथा बौद्धिक मान्यताएँ टूट रही थी। छापेखाने के आविष्कार ने स्थानीय भाषाओं के विकास और लेखकों की लेखनी को गति दी। बौद्धिक चेतना से उत्पन्न नयी चिंतन-धारा ने मजहबी अंधविश्वासों और कुप्रथाओं की जड़ को झकझोर दिया। मध्यमवर्ग और वाणिज्य व्यापार के उदय तथा राष्ट्रीय राज्य के उत्कर्ष और तर्क पर आधारित ज्ञान विस्तार ने ईसाईयत और चर्च में सुधारवादी परिवर्तन आवश्यक कर दिए। मानवतावादी साहित्यकारों ने मजहब और चर्च की प्रचलित मान्यता पर गहरा प्रहार किया।
सुधार आंदोलन (Reformation) का अर्थ
सोलहवीं शताब्दी में पुनर्जागरण से प्रभावित लोगों ने पोप की सांसारिकता व प्रभुत्व के विरूद्व और चर्च की कुरीतियों, आडंबरों, पाखण्डों तथा शोषण को समाप्त करने के लिए जो आंदोलन आरंभ किया उसे रिफोर्मेशन आंदोलन कहा गया। डेविस के अनुसार, रिफोर्मेशन पुनर्जागरण से निकट रूप से संबंधित वह महान् मजहबी आंदोलन है जो कि रिफोरमेशन आंदोलन के नाम से विख्यात है। सेबाइन लिखते हैं कि रिफोरमेशन या सुधार आंदोलन “सर्वव्यापी चर्च के एकाधिकार पर आक्रमण किया, जो मध्ययुग की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक थी।” हेज ने लिखा है कि विवेक की जागृति के परिणाम स्वरूप बहुसंख्यक ईसाई, कैथोलिक चर्थ के आडंबरों के कटु आलोचक हो गए थे। वे चर्च नामक संस्था में परिवर्तन चाहते थे। इसी सुधारवादी प्रयास के परिणाम स्वरूप जो मजहबी उथल-पुथल हुई और जिसके कारण ईसाईयत के नवीन संप्रदाय अस्तित्व में आए, इसी को रिलिजियस रिफोरमेशन (मजहबी सुधार) कहते हैं। सारांशतः रिफोरमेशन आंदोलन प्रत्यक्षतः तो ईसाई लोगों के नैतिक, आध्यात्मिक जीवन को ऊँचा उठाने तथा पोप के व्यापक अधिकारों के विरुद्ध हुए विद्रोह की दृष्टि से राजनैतिक व मजहबी आंदोलन था, लेकिन इसमें आर्थिक, बौद्धिक और सामाजिक पक्ष भी सम्मिलित थे।
सुधार आंदोलन (Reformation) के कारण
पुनर्जागरण का प्रभाव
मध्यकाल यूरोप पुनर्जागरण के कारण धर्म बंधनों से मुक्त हो गया। बौद्धिक चेतना ने स्वतंत्र चिंतन शक्ति प्रदान की। प्रचलित अंध विश्वास और परंपराओं को तर्क की कसौटी पर कसने लगे। मजहब के सात्विक स्वरूप को जाना और चर्च और पादरी पर निर्भरता को समाप्त किया। प्रगतिवादी साहित्य सृजन और मानवतावाद के उदय ने मनुष्य का सीधा ईश्वर के साथ संबंध स्थापित कर दिया। पुनर्जागरण के कारण चर्च की मध्यस्थता का परित्याग तथा अज्ञानता के आवरण को हटाकर यूरोप के लोगों ने मजहबी सुधार आंदोलन शुरू किया।
चर्च के अंतर्गत व्याप्त बुराईयाँ
मजहबी सुधार आंदोलन का प्रमुख कारण चर्च में आई बुराइयाँ थी। पादरियों की अज्ञानता और विलासता ने चर्च के पदों की बिक्री शुरु कर दी तथा अपने संबंधियों के बीच चर्च के लाभकारी पदों को बांटना शुरु कर दिया। पोप, पादरी तथा चर्च के पदाधिकारी प्रतिबंध मुक्त, भ्रष्ट और विलासी जीवन जी रहे थे। चर्च के अधिकारियों पर किसी भी राजा का कानून लागू नहीं होता था। पोप स्वयं को संपूर्ण ईसाई जगत का सम्राट और मजहबी प्रमुख मानता था। इसके प्रतिनिधि ‘लिमेंट एवं नन सिमस’ राज्यों पर नियंत्रण रखते थे। ‘एक्स कम्यूनिकेश’ नामक विशेषाधिकार से किसी भी राजा को मजहब व पद से हटाया जा सकता था। ‘इन्टरडिक्ट’ नामक विशेषाधिकार से किसी राज्य के चर्च को बंद किया जा सकता था। राजा और प्रजा दोनों ही चर्च से भयभीत रहते थे।
आर्थिक कारण
आर्थिक कारणों ने मजहबी सुधार आंदोलन में उल्लेखनीय भूमिका अदा की। राजाओं को सेना एवं प्रशासन का खर्चा चलाने लिए अधिक धन की आवश्यकता थी, परंतु पादरियों द्वारा वसूल किया गया कर रोम चला जाता था तथा पादरी धनी होने के साथ ही कर देने से मुक्त थे। राजा चाहते थे कि राज्य का शासन चलाने के लिए चर्च पर टैक्स लगाया जाए।
मध्यम वर्ग की महत्वाकांक्षा
पुनर्जागरण से पूर्व यूरोप के लोगों का जीवन चर्च और सामंतों द्वारा नियंत्रित था। पुनर्जागरण काल में व्यापार के विकास और राष्ट्रीय राज्यों के उदय से यूरोप में एक नवीन मध्यम वर्ग का उदय हुआ, जो पूंजी निवेश द्वारा अपनी शर्तों पर उत्पादन कराने को तत्पर था। इस नए वर्ग ने स्वयं द्वारा अर्जित धन से ऐश्वर्य का जीवन बिताने की चाह में चर्च के प्रतिबंध से मुक्ति हेतु प्रयत्न शुरू किए। इस वर्ग ने रोजगार के नये साधन प्रदान कर दयनीय कृषकों तथा श्रमिकों को अपनी ओर आकृष्ट किया। अब वे चर्च और सामंतवर्ग पर निर्भर नहीं रहे। यह नवीन वर्ग चर्च में एकत्रित अतुल संपत्ति का विरोध करता था। इस मध्यम वर्ग ने चर्च विरुद्ध समुद्री यात्रा और ब्याज का लेन-देन शुरू कर दिया। मध्यम वर्ग द्वारा शासकों को अधिक कर देने के कारण राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ। इस प्रकार इस मध्यम वर्ग ने अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए प्रचलित रूढिवादी परंपराओं के विरूद्ध विद्रोह कर मजहबी सुधार आंदोलन को गति प्रदान की।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास
यूरोप का ईसाई समाज अपने को आजन्म चर्च और चर्च के अधिकारियों के पूर्ण प्रभाव में रहना ही अपनी नियति समझता था चर्च संबंधी विषयों पर तर्क करना पाप समझता था। प्रयोग और परीक्षण की नवीन वैज्ञानिक पद्धति ने सृष्टि व मानवोत्पत्ति की रूढिवादी सोच को नकार दिया। ‘अरस्तु’ का चिंतन कि, “सृष्टि की प्रत्येक वस्तु वायु, जल, और अग्नि का परिणाम है”, पुनः मान्य होने लगा। ‘कोपरनिकस’ का सिद्धांत कि पृथ्वी अपनी कक्षा में सूर्य का चक्कर लगाती है मान्य हुआ। मजहबी मान्यताओं के विरूद्ध इन विचारों को विद्रोही कहा गया और इन्हें दबाने के प्रयास किये गए। किंतु दमन के प्रयास प्रभावशाली न हो सके।
पोप का राजनीति में हस्तक्षेप
मध्यकाल में यूरोप में पोप ने असीमित सत्ता प्राप्त कर राजा तथा राज्य को गौण बना दिया था। पोप को विशेष दैवीय अधिकार प्राप्त थे। इन अधिकारों से पोप अपने को शासकीय व्यवस्था तथा कानून से ऊपर समझता था। संप्रभु पोप अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करने और राजा के राजनैतिक कार्यों में ही नहीं, व्यक्तिगत जीवन में भी हस्तक्षेप करने लगा। चर्च का न्यायालय राजा के न्यायालय के निर्णयों को रद्द करने लगा। राजा और जन सामान्य इस दोहरी एवं विरोधाभासी व्यवस्था से दुःखी हो गए। पोप और राजा की व्यवस्था में टकराव होने लगा। पुनर्जागरण के बाद राष्ट्रीय शक्ति संपन्न राजा पोप के अनुचित राजनैतिक अधिकारों को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। राजा चाहते थे कि राष्ट्र के अंदर रहने वाले सभी व्यक्ति और सारी संस्थाओं की श्रद्धा और भक्ति राष्ट्र के प्रति हो। रोम का पोप सभी देशों के चर्च संगठनों का प्रधान था। लेकिन राजा अब पोप द्वारा पादरियों की नियुक्ति के अधिकार को चुनौती देने लगे। पोप का दावा था कि वह प्रत्येक देश के आंतरिक मामलों में दखल दे सकता है। इसलिए चर्च राजा का राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी था। इन कारणों से राजा चर्च के प्रभुत्व और उसके प्रधान पोप का विरोधी था। यूरोप के बहुत से ऐसे राजा थे जो रिफोर्मेशनआंदोलन के समर्थक थे।
बौद्धिक प्रकिया
प्रबुद्ध बुद्धिवादी लोगों में चर्च के अनैतिक, भ्रष्ट एवं विलासितापूर्ण जीवन के विरूद्ध प्रतिक्रिया होने लगी कि “पोप या पादरी जो स्वयं पतित और पापी है, पापों से मुक्ति कैसे दिला सकता है?” भौतिकवादी, मानवतावादी और सुधारवादी बौद्धिक विचारक अपने तर्कों से इसका विरोध करने लगे। भौतिकवादी विचारक चर्च के प्रति पूर्ण श्रद्धा और भक्तिभाव से मुक्ति चाहते थे। पादरी इरबर्ट को नैतिक एवं सात्विक जीवन यापन का आह्वान करने पर दण्ड दिया गया। दांते. लोरेन्जो, बोकेसिओ आदि मानवतावादी चिंतक जीवन के सुख को चर्च से अधिक महत्व देते थे। सुधारवादी चर्च में व्याप्त दुर्व्यवस्था और पुरोहितों के जीवन चरित्र में सुधार लाना चाहते थे। इनमें मार्टिन लूथर, जॉन वाई क्लिक एवं जॉन हंस जैसे सुधारक थे। इन्होंने चर्च व पादरियों की कटु आलोचना की और मूल मजहबी पुस्तक (बाइबिल) को ही मजहब का सच्चा पथ-प्रदर्शक घोषित किया। बाइबिल की सात्विक व्याख्या प्रस्तुत की। पोप ने उन्हें मजहब विरोधी घोषित किया प्रतिक्रियास्वरुप यूरोप में मजहबी क्रांति उत्पन्न हुई।
तत्कालीन कारण
सुधार (रिफोरमेशन) आंदोलन की शुरूआत क्षमापत्रों की विक्री का मार्टिन लूथर द्वारा विरोध से मानी जाती है। धन की लालसा चर्च के अधिकारियों को इतनी बढ़ गई कि चर्च के ठेकेदारों ने मुक्ति का व्यापार शुरू कर दिया। पोप लियो दशम् ने पाप मोचन पत्र बनवाए जिन्हें खरीद कर कोई भी ईसाई अपने पापों से मुक्ति प्राप्त कर सकता था। धनवान लोग अनैतिक तरीके से कमाए धन से इन क्षमा पत्रों को खरीद लेते थे। आर्क बिशप ‘अलवर्ट’ को पोप ने यह कार्य सौंपा, जिसने एक पादरी ‘टेटजेल’ को इन क्षमापत्रों की बिक्री हेतु अधिकृत किया। इन्हें खरीदने वालों को बिना पश्चाताप (कन्फेशन) के पाप से मुक्ति की गारंटी दी जाती थी। 1517 ई. में पादरी टेटजेल जर्मनी के ‘विटनवर्ग’ पहुँचा जहाँ मार्टिन लूथर ने इसे क्षमापत्रों की बिक्री करते देखा तथा भारी विरोध किया। पोप ने मार्टिन लूथर को पंथ बहिष्कृत कर दिया। इस घटना से ही रोमन कैथोलिक पंथ के विरूद्ध आंदोलन प्रारंभ हो गया। सोलहवीं शताब्दी के अंत तक चर्च के विरूद्व पांथिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक असंतोष चरम सीमा तक पहुंच चुका था। विद्रोह के लिए सिर्फ एक चिंगारी आवश्यकता थी जो क्षमापत्रों की बिक्री ने पूरी कर दी।
प्रमुख सुधारक
जॉन वाईक्लिफ (1320-1384)
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में कार्यरत थे। ईसाई चर्च के आडंबरों एवं भ्रष्ट तंत्र की आलोचना करते हुए घोषणा की कि पोप पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं है तथा विवेकहीन पादरियों के मजहबी उपदेश निरर्थक है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं मूल बाइबिल का अध्ययन करना चाहिए और तद्नुसार आचरण करना चाहिए। उन्होंने कहा कि जन भाषाओं में बाइबिल का अनुवाद करना चाहिए। चर्चा के पास पड़ी अपार धन संपदा पर राज्य को अधिकार कर लेने की वकालत की। जॉन वाई क्लिफ के प्रगतिवादी विचारों को परंपरावादी सहन नहीं कर पाए। उसे पदच्युत कर दिया गया तथा उसे पाखण्डी घोषित किया गया। उसके विचारों ने जनता पर छाप छोड़ी और उसे ‘द मार्निग स्टार ऑफ रिफोर्मेशन’ कहा गया। उसके अनुयायी ‘लोलार्ड्स’ कहलाए।
जॉन हँस (1369-1415 ई.)
बोहेमिया नगर का निवासी था और वाईक्लिफ के विचारों से प्रभावित था। प्राग विश्व विद्यालय में प्रोफेसर था। उसका विचार था कि एक सामान्य ईसाई को बाईबिल अध्ययन से मुक्ति मिल सकती है और इसके लिए उसे चर्च जाने की आवश्यकता नहीं है। उसने पोप के आदेशों को न मानने का आह्वान किया। जॉन हँस को चर्च और मजहब की निंदा करने वाला तथा नास्तिक घोषित कर जिंदा जलवा दिया गया।
सेवानरोला-(1452-1488 ई.)
फ्लोरेन्स निवासी सात्विक जीवन जीने वाला विद्वान पादरी था। इसने पोप द्वारा सांसारिक भोग विलास युक्त जीवन जीने की आलोचना की। सेवानरोला का मानना था कि पादरियों को सरल, सादा, पंथनिष्ठ जीवन जीना चाहिए। पोप अलेक्जेण्डर षष्ठम् ने उसे चर्च तथा पादरियों के जीवन की निंदा करने से रोकने का आदेश दिया । पोप के आदेशों की अवहेलना करने पर उसे ईसाई परिषद् के समक्ष बुलाकर प्राण दण्ड दिया और जीवित अग्नि को समर्पित कर दिया।
इरेस्मस (1466-1536 ई.)
हालैण्ड निवासी प्रसिद्ध मानवतावादी लेखक, उच्चकोटि का विद्वान एवं विचारक था। इरेस्मस को लेखन शैली की प्रभावोत्पादकता के कारण शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त हो गई। उसने 1511 ई. में ‘मूर्खता की प्रशंसा (इन प्रेज ऑफ फॉली) नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उसने व्यंग्यपूर्ण शैली में पादरियों कीअज्ञानता एवं उनके पाखण्डों की कटुआलोचना की। 1516 ई. में उसने ‘न्यू टेस्टामेन्ट’ का नवीन संस्करण प्रकाशित कराया जिसमें ईसाइयत के मूल सिद्वांतों की सात्विक व्याख्या की। द प्रेज ऑफ फॉली के बारे में कहा जाता है कि लूथर के क्रोध की अपेक्षा इरेस्मस के उपहासों ने पोप को अधिक हानि पहुँचाई।
मार्टिन लूथर-(1483-1546 ई.)
जर्मनी के एक साधारण किसान परिवार में 1483 ई. में जन्म लिया। उसके पिता उसे वकील बनाना चाहते थे। उसकी रूचि मजहबी शास्त्रों के अध्ययन में थी। जब उसने विश्व विद्यालय में मजहबी शास्त्रों का अध्ययन शुरू किया, उसका मन उद्वेलित रहने लगा तथा आत्मा की शांति के लिए वह आगस्टीनियन भिक्षुओं में शामिल हो गया।
संत पॉल के पत्रों को पढ़ कर उसे ऐसा लगा कि मुक्ति का मार्ग अच्छे कर्म, संस्कार और कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि ईसा में सरल आस्था है। दूसरे शब्दों में ईसा मसीह में अटूट विश्वास के द्वारा मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता हैं। जब वह विटनवर्ग में मजहबी शास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त हुआ तो उसे और अध्ययन का मौका मिला। उसका विश्वास और अधिक बढ़ गया कि केवल आस्था और विश्वास से मुक्ति मिल सकती है। उसने अनुभव किया कि पूजा, प्रायश्चित, प्रार्थना, आध्यात्मिक ध्यान और क्षमा-प्रदान पत्रों की खरीद से पाप से मुक्ति नहीं मिल सकती है। अपनी मजहबी शंकाओं के निवारण के लिए 1511 ई. में वह रोम गया। रोम में पोप की वैभवशाली, पतित, निरंकुश और स्वेच्छाचारी जीवन शैली को देखकर वह अत्यंत क्षुब्ध एवं निराश हुआ। अब उसके मस्तिष्क में विद्रोह की चिंगारी जल चुकी थी।
1517 ई. में उसे क्षमापत्रों की बिक्री करता हुआ, पोप लियो दशम् का अधिकृत प्रतिनिधि, टेटेजेल विटनवर्ग में मिला। इस कार्य को देखकर वह अत्यंत व्यथित हुआ और उसने विटनबर्ग के कैसल चर्च के प्रवेश द्वार पर क्षमापत्रों के विक्रय के विरोध में 95 मान्यताओं का विरोध पत्र लगा कर पोप के कार्य का विरोध किया। उसने दलील दी कि क्षमापत्रों के द्वारा व्यक्ति चर्च के लगाए दण्ड से तो मुक्त हो सकता है, किंतु मृत्यु के पश्चात् वह ईश्वर के लगाये दण्ड से तो छुटकारा नहीं पा सकता, न अपने पाप के फल से बच सकता है। उसके विचारों ने तहलका मचा दिया। उसके समर्थकों की संख्या बढ़ने लगी। उसने कई पत्रक(पंपलेट) लिखकर चर्च की कमजोरियों पर प्रहार किया, पोप के अधिकारों को चुनौती दी, चर्च की संपत्ति जब्त करने और चर्च पर नियंत्रण करने का आह्वान राजाओं से किया।
1519 ई. में ‘लिपजिंग’ में पोप के प्रतिनिधि और लूथर के मध्य एक खुले वाद -विवाद में उसने ईश्वर और मनुष्य के बीच पोप को निरर्थक सिद्ध किया। उसने चर्च की कमजोरियों पर प्रहार किया। पोप के अधिकारों को चुनौती दी। अपने विचारों को जनता तक पहुंचाने के लिए उसने तीन पत्रक (पंपलेट)प्रकाशित किए —(i) जर्मन सामंत वर्ग को संबोधन— इस पत्रक में लूथर ने कहा कि ईसाई अधिकारी वर्ग में कुछ भी विशेष नहीं है। तुरंत उनके विशेष अधिकार समाप्त होने चाहिए। उसने चर्च की अपार संपत्ति का अधिग्रहण करते हुए जर्मन शासकों को विदेशी प्रभुत्व से मुक्त होने की लिए कहा।
(ii) ईश्वर के चर्च की बैबीलोनियाई कैद— इस पत्रक के द्वारा उसने पोप और उसकी व्यवस्था पर प्रहार किया। (iii) ईसाई व्यक्ति की मुक्ति— इसमें उसने मुक्ति के अपने सिद्धांतो का उल्लेख किया। इसी समय उसने बाईबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया।
पोप ने 1520 ई. में लूथर को दो माह में अपने प्रकाशित विचारों को रोकने व पूर्णतः खण्डन करने का आदेश दिया तथा कहा कि अन्यथा उसे पंथद्रोही घोषित कर दण्डित किया जाएगा। पोप के इस आदेश का लूथर ने सार्वजनिक सभा में दहन किया। पोप द्वारा उसे मजहब से बहिष्कृत कर दिया गया और उसकी हत्या हेतु ईसाई जनता को प्रोत्साहित किया। किंतु अनेक पोप विरोधी राजाओं ने लूथर की सहायता की और संरक्षण दिया। 1521 ई. की ‘वर्स’ की सभा में पुनः लूथर को चर्च विरोधी प्रचार बंद करने को कहा गया। लूथर ने स्पष्ट घोषणा कि वह ऐसा तभी कर सकता है, यदि तर्क द्वारा उसके एक भी विचार को मजहब विरूद्ध सिद्ध कर दिया जाए। उसने कहा कि “पाप केवल पश्चाताप से नष्ट हो सकता है जो कि मन का विषय है, चर्च के आडंबरों से उसका कोई लेना-देना नहीं है।”
इस समय जर्मनी में सामाजिक एवं मजहबी खलबली पैदा हो चुकी थी। दक्षिण-पूर्वी और मध्य जर्मनी के किसानों ने लूथर के उपदेशों से प्रेरणा लेकर विद्रोह कर दिया। शुरू में लूथर को इस आंदोलन से हानुभूति थी। लेकिन 1529 ई. के बाद आंदोलन के जनवादी और हिंसक चरित्र से घबराकर उसने शासकों से आग्रह किया कि वे इस विद्रोह का दमन कर दें। वह यह जानता था कि यदि अशान्ति बढ़ी तो उसके विचारों के प्रसार में अवरोध आ जाएगा और नेतृत्व उसके हाथ से निकल जाएगा। इसीलिए उसने जन विरोधी फैसला लिया। 1526 ई. में स्पीयर की प्रथम पांथिक सभा में मजहबी मतों का निराकरण करने का असफल प्रयास किया गया, जिसमें जर्मन शासक गण लूथरवाद तथा कैथोलिक समर्थक दलों में विभाजित हो गए।
1529 ई. में ही स्पीयर में दूसरी मजहबी सभा का आयोजन किया गया, किंतु इस सभा ने भी सुधार आंदोलन को मान्यता नहीं दी। इसके विपरीत रिफोरमेशन आंदोलन के खिलाफ कई सख्त प्रस्ताव पारित किए गए। इन प्रस्तावों का लूथरवाद के समर्थक शासकों ने 19 अप्रैल 1529 ई. को औपचारिक विरोध किया। इस विरोध या प्रतिवाद (प्रोटेस्ट) के कारण लूथर के इस सुधार आंदोलन को प्रोटेस्टेंट कहा गया।1530 ई. में ‘आक्सवर्ग स्वीकृति’ द्वारा प्रोटेस्टेंट वाद को सैद्धांतिक स्वीकृति मिल गई। जर्मनी में 1546 ई. से 1555 ई. तक भीषण गृह युद्ध चलता रहा। जब चार्ल्स ने रक्तपात से तंग आकर सिंहासन त्याग दिया तो उसके उत्तराधिकारी सम्राट फर्डिनेण्ड ने प्रोटेस्टेण्टों से समझौते की नीति अपनाते हुए 1555 ई में आंग्सबर्ग की संधि की। संधि के अनुसार—
- प्रत्येक शासक ने अपनी-अपनी प्रजा को पंथ चुनने की स्वतंत्रता दी।
- 1552 ई. से पूर्व प्रोटेस्टेण्टो द्वारा चर्च की जो संपत्ति छीनी गई उसको मान्यता दे दी गई।
- लूथरवाद के अलावा अन्य पंथ मजहब को मान्यता नहीं दी गई।
- कैथोलिक बहुल क्षेत्रों में लूथरवादियों को मत परिवर्तन करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
- कैथोलिक पादरियों को प्रोटेस्टेंट मत स्वीकार करने पर अपना धारित पद त्यागना होगा।
मार्टिन लूथर के विचार बहुत सुगम थे। उसने ईसा और बाईबिल की सत्ता स्वीकार की, लेकिन पोप और चर्च की दिव्यता और निरंकुशता को नकार दिया। चर्च द्वारा निर्धारित कर्मों के स्थान पर उसने आस्था को मुक्ति का साधन बताया। संस्कारों में उसने केवल तीन-नामकरण, प्रायश्चित और प्रसाद या पवित्र भोज (बप्टिज्म, पेंनेंस और यूखारिष्ट) को ही माना। चर्च में चमत्कारों को नहीं माना। उसने पोप, कार्डिनल औरबिशप के पदानुक्रम को समाप्त करने की मांग की तथा सभी आस्थावानों की पुरोहिताई की घोषणा की। उसने राजाओं को चर्च का प्रधान माना। पादरियों के ब्रह्मचर्य पालन की अनिवार्यता को समाप्त करने का विचार दिया।
ज्विंगली (1484-1531)
लूथर के समकालीन ज्विंगली का जन्म स्विट्जरलैण्ड के टोगेनबर्ग प्रांत में 1484 ई. में हुआ। वह यथार्थवादी एवं मानववादी चिंतक तथा प्राचीन साहित्य के प्रति गहन रूचि रखने वाला था। उसने पोप का सक्रिय विरोध किया और पवित्र बाईबिल को ही मनुष्य का एक मात्र निर्देशक घोषित किया। उसने इरेस्मस के मानवतावादी विचारों तथा लूथर के चर्च विरोधी विचारों के साथ समन्वय करके ईसाईयों केलिए सरल प्रार्थना की परंपरा का सूत्रपात किया। 1525 ई. में सुधारवादी चर्च (रिफाई चर्च) की स्थापना की। पवित्र भोज (यूखारिष्ट) के प्रश्न पर वह मार्टिन लूथर से भिन्न विचार रखता था। उसने शक्ति का प्रयोग कर कैथोलिकों को सुधारवादी चर्च में सम्मिलित करने का प्रयास किया जिससे स्विट्जरलैण्ड में 1631 ई. में गृह युद्ध शुरू हो गया। इस गृह युद्ध में वह मारा गया। बाद में ‘केपल की संधि’ हुई जिसके द्वारा वहां परकैथोलिक व प्रोटेस्टेंट दोनों मतों को मान्यता मिल गई।
कॉल्विन (1509 1564 ई.)
काल्विन का जन्म 1500 ई. में फ्रांस में हुआ। प्रोटेस्टेण्ट मत की स्थापना में लूथर के बाद कॉल्विन का ही नाम आता है। कॉल्विन पहला सुधारक था, जो अटूट विश्वास के साथ, एक ऐसा पवित्र संप्रदाय स्थापित करना चाहता था जिसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और ख्याति प्राप्त हो। कॉल्विन ने पेरिस विश्व विद्यालय में मजहबी साहित्य का गहरा अध्ययन किया। लूथर के विचारों को पढकर 24 वर्ष की उम्र में ही प्रोटेस्टेण्ट मत को अपना लिया तथा फ्रांस के रोमन कैथोलिक चर्च से संबंध तोड लिए। फ्रांस के रोमन कैथोलिक चर्च और फ्रांस की सरकार के क्रोध से बचने के लिए वह फ्रांस छोड़कर स्विजरलैण्ड चला गया और वहीं उसने ईसाईयत की स्थापनाऐं (इन्स्टीट्यूट्स ऑफ द क्रिश्चियन रिलीजन) नामक पुस्तक की रचना की। यह मजहबी पुस्तक बाद में प्रोटेस्टेंटवाद के इतिहास में सबसे प्रभावशाली ग्रंथ साबित हुई।
कॉल्विन के सिद्धांतों का आधार ईश्वर की इच्छा की सर्वोच्चता है। ईश्वर की इच्छा से सब कुछ होता है, इसलिए मनुष्य की मुक्ति न कर्म से हो सकती है न आस्था से, वह केवल ईश्वर के अनुग्रह से ही हो सकती है व्यक्ति का जन्म होते ही यह निश्चित हो जाता है कि उसको मुक्ति मिलेगी या नहीं। इसे ही पूर्व में तय नियति का सिद्धांत कहते हैं। इस सिद्धांत से घोर भाग्यवादिता बढ़नी चाहिये थी, लेकिन काल्विन ने ठीकइसके विपरीत अपने अनुयायियों में एक नवीन उत्साह और दैविक प्रेरणा का संचार किया। कॉल्विन मत को मानने वालों में व्यापारी वर्ग अधिक था। 1536 ई. से अपनी मृत्यु 1564 ई. तक उसने अपना कार्य क्षेत्र जिनेवा को ही रखा। उसने इस काल में जिनेवा की मजहबी संस्थाओं का ही नहीं, बल्कि उसकी शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था तथा व्यापार का भी संचालन किया। काल्विनवाद का प्रचार स्विट्जरलैण्ड, डच, नीदरलैण्ड, स्कॉटलैण्ड और जर्मन पैलेटिनेट में हुआ। इंग्लैण्ड और फांस भी उसके अनुयायी थे।
ब्रिटेन में एंग्लीकनवाद
ब्रिटेन में मजहबी सुधार आंदोलन का नेतृत्व इंग्लैण्ड के राजाओं द्वारा किया गया। शुरूआत हेनरी अष्टम के द्वारा राष्ट्रीय चर्च की स्थापना से हुई। हेनरी अपनी पत्नी कैथरीन के साथ विवाह को पोप से अमान्य घोषित करवाना चाहता था। पोप हेनरी के लिए यह कर तो सकता था, लेकिन उसे डर था कि कैथरीन के विवाह को अमान्य करने से उसका भतीजा सम्राट चार्ल्स पंचम नाराज हो जाएगा। सम्राट चार्ल्स पंचम से पोप डरता था, क्योंकि रोम की सुरक्षा सम्राट चार्ल्स पंचम की सेना करती थी और कैथरीन सम्राट चार्ल्स की बुआ थी। जब हेनरी ने पोप से यह कार्य करने को कहा तो उसने टाल दिया। तब हेनरी ने संसदसे एक्ट ऑफ सुपरमेसी पास करवाया तथा स्वयं ब्रिटेन के चर्च का सर्वोच्च अधिकारी बन गया। इस प्रकार ब्रिटेन ने रोमन चर्च से संबंध तोड़ लिए तथा ब्रिटेन के चर्च को एंग्लीकन चर्च का नाम दिया गया। पोप को वार्षिक कर भेजना बंद कर दिया गया। हेनरी के उत्तराधिकारी एडवर्ड छठे के शासन काल में आंग्ल चर्च प्रोटेस्टेण्ट बन गया। कैमर ने बुक ऑफ कामन प्रेयर नामक पुस्तक प्रकाशित करवाई और प्रसिद्ध बयालीस सिद्धांतों की घोषणा की। ब्रिटेन का यह रिफोर्मेशन (सुधार) आंदोलन एंग्लीकनवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
सुधार आंदोलन (Reformation) के परिणाम
ईसाई धर्म का विभाजन
इस आंदोलन का महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि संपूर्ण यूरोप में एक मात्र कैथोलिक चर्च की प्रभुसत्ता सदा के लिए समाप्त हो गई। अब यूरोप में प्रोटेस्टेण्ट वाद से प्रभावित ईसाई चर्चा की स्थापना होने लगी।
प्रतिवादी सुधार आंदोलन
पुनर्जागरण ने जो वातावरण तैयार किया उसमें कैथोलिक चर्च में सुधार के लिए वाईक्लिफ और हंस जैसे लोगों ने आवाज उठाई तो उन्हें दबा दिया गया और पोप तथा पादरी विलासिता में डूबे रहे। किंतु जब लूथर और कॉल्विन ने विद्रोह किया तो कैथोलिक चर्च के लिए जीवन मरण का संकट पैदा हो गया। जब यूरोप में एक के बाद एक प्रोटेस्टेण्ट राज्य बनते जा रहे तो कैथोलिक चर्च को बचाने व प्रोटेस्टेण्ट आंदोलन को रोकने के लिए कुछ सुधारात्मक उपाय किए गए। ये सुधारात्मक उपाय रिफोर्मेशन आंदोलन के प्रतिवाद (प्रतिकिया स्वरूप) में ही शुरू किए गए। अतः इसे (काउंटर रिफोर्मेशन) प्रतिवादी रिफोरमेशन कहते हैं। इस सुधार का उद्देश्य चर्च के संगठन और मजहबी सिद्धांतों में आए दोषों को दूर करना व चर्च के अंदर व्याप्त भ्रष्ट आचरणों को रोकना था।
ट्रेन्ट की सभा
उत्तरी इटली के ट्रेन्ट नामक स्थान पर कैथोलिक पंथ सभा का आयोजन किया गया। इस सभा मेंऐसे अनेक सुधारवादी चिंतकों को बुलाया गया, जो कैथोलिक मजहबी सिद्धांतों की सात्विक व्याख्या कर सकें। इस सभा में दो तरह के निर्णय लिए गए सिद्धांतगत और सुधार संबंधी। चर्च के मूल सिद्धांतों में कोई परिवर्तन स्वीकार नहीं किया गया। बाईबिल की व्याख्या का अधिकार केवल चर्च को ही दिया गया। सातों संस्कार अपरिवर्तनीय माने गए। मुक्ति का आधार चर्च के माध्यम से संपन्न कार्य बताए गए और चमत्कार में आस्था व्यक्त की गई। पोप को चर्च का सर्वोच्च अधिकारी और सर्वमान्य व्याख्याकार स्वीकार किया गया। सुधारात्मक उपायों में चर्च के पदों की बिक्री समाप्त कर दी गई। पादरियों को निर्देश दिए गए कि वे अपने कार्यक्षेत्र में रहकर आदर्श नैतिक जीवन बिताएं। पादरियों को उचित शिक्षा देने का प्रबंध किया गया। मजहब की भाषा तो लैटिन रखी गई लेकिन लोक भाषाओं का प्रयोग करने की भी आज्ञा मिल गई। क्षमापत्रों की ब्रिकी रोक दी गई और संस्कार संबंधी कार्यो के लिए आर्थिक लाभ लेने पर प्रतिबंध लगा दिया। ऐसी पुस्तकों की भी सूची बनाई गई जो पूर्णतः या अंशतः चर्च विरोधी थीं। कुछ पुस्तकों को पूरी तरह प्रतिबंधित किया गया और कुछ के निशिद्ध अंश निकालकर पढ़ने योग्य समझा गया।
मजहबी न्यायालय (इन्क्वीजिशन न्यायालय) की स्थापना प्रोटेस्टेंटवादियों की प्रगति को रोकने तथा ढुलमुल कैथोलिकों का पता लगाकर उन्हें दण्डित करने तथा नास्तिक, मजहब विरोधियों, विद्रोही मिशनरियों को कठोरतम दण्ड दिए जाने का प्रावधान इस न्यायालय के माध्यम से किया गया। सोसाइटी ऑफ जेसस की स्थापना 1534 ई. में की गई। इस सोसाइटी की स्थापना करने वाला ‘इग्नेशियस लोयोला’ था जो स्पेन निवासी एक बहादुर सैनिक था तथा जिसने अपना सारा जीवन कैथोलिक चर्च के लिए समर्पित कर दिया था। इस सोसाइटी के सदस्य उच्च प्रतिभा, अच्छे स्वास्थ्य, आकर्षक व्यक्तित्व वाले होते थे। इनको दो वर्ष तक प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रशिक्षण में सफल होने पर उन्हें पादरी, डाक्टर, शिक्षक, कूटनीतिक दूत इत्यादि विशिष्ट कार्य दिया जाता था। इस संस्था के सदस्यों को अनुशासन बद्ध रहकर कैथोलिक पंथ की निःस्वार्थ सेवा करने, दीनता, पवित्रता का जीवन जीने तथा आज्ञापालन एवं पोप के प्रति समर्पण की शपथ लेनी होती थी। इस संस्था के सदस्यों को कैथोलिक ईसाई मत का प्रचार-प्रसार करने के लिए भारत, चीन, अमेरिका आदि अनेक देशों में भेजा गया।
इस प्रकार कैथोलिक प्रति सुधारवाद (कैथोलिक काउण्टर रिफोरमेशन) ने प्रोटेस्टेंट आधी को रोक दिया तथा ट्रेन्ट की सभा द्वारा किए गए आत्म निरीक्षण तथा लोयोला जैसे उत्साही लोगों के प्रयासों ने विरोध के स्पष्ट मुद्दे समाप्त कर दिए और व्यवस्था के अंदर जो खोखलापन आया था उसे नए आत्मविश्वास के साथ दूर कर दिया गया।
राष्ट्रीय भावना का विकास
रिफोरमेशन (सुधार) आंदोलन ने राष्ट्रीय राजा की शक्ति और प्रतिष्ठा का विकास किया। राष्ट्रवादी राजाओं के कारण ही प्रोटेस्टेंट पांथिक सुधार आंदोलन सफल हुआ। रोमन कैथोलिक चर्च अंतर्राष्ट्रीय संस्था थी और राजाओं की सर्वोच्च सत्ता को नहीं मानती थी। प्रोटेस्टेंट आंदोलन की सफलता ने राज्यों को अपना पंथ चुनने की स्वतंत्रता प्रदान की और रोमन कैथोलिक पोप के आधिपत्य को समाप्त किया। राष्ट्रीय चर्चोंकी स्थापना हुई । प्रति सुधार के पश्चात् कैथोलिक पोप ने भी राष्ट्रीय चर्च के पादरियों की नियुक्ति का अधिकार राजाओं को दे दिया। राज्यों की शक्ति में वृद्धि के साथ ही लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का भी विकास हुआ।
मजहबी गृह युद्धों का प्रारंभ
रिफोरमेशन आंदोलन के कारण यूरोप का ईसाई मजहब दो भागों में विभाजित हो गया और इस विभाजन के कारण यूरोपीय राज्यों में गुटबंदी पनपी जिससे परस्पर संघर्ष प्रारंभ हो गया। इनमें हालैण्ड में मजहबी युद्ध, फांस में ज्विंगली के समर्थकों ने मजहबी स्वतंत्रता हेतु युद्ध किया। जर्मनी के राज्यों में भी मजहब केनाम पर युद्ध हुए।
शिक्षा का प्रचार-प्रसार
मजहबी सुधार आंदोलन, के कारण सुधारवादियों ओर कैथोलिक मतानुयायियों ने शिक्षा के प्रसार पर जोर दिया। इसके अंतर्गत सामाजिक संस्थाओं और राज्य द्वारा विद्यालय प्रारंभ किए गए। अब प्रगतिशील तर्क आधारित, वैज्ञानिक दृष्टि कोण युक्त शिक्षा दी जाने लगी।
साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में विकास
मजहबी सुधार आंदोलन के कारण अब लैटिन भाषा के साथ-साथ प्रादेशिक भाषाओं को भी मान्यता दी गई, जिससे प्रादेशिक भाषाएँ समृद्ध हुई। जनभाषाओं के विकास के लिए अनेक मजहब शास्त्र और नीतिशास्त्र, जनभाषाओं में लिखे गए। सुधारवादियों ने अनेक साहित्यिक ग्रंथों की रचना जनभषाओं में की।
आर्थिक विकास एवं पूंजीवादी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन
तत्कालीन अर्थव्यवस्था पर मजहबी सुधार का गहरा प्रभाव पड़ा। कॉल्विनवाद ने व्यापार और वाणिज्य कासमर्थन किया। सुधार आंदोलन के पश्चात् चर्च की भूमि को कृषकों में वितरित किया गया, जिससे राज्य के राजस्व में वृद्धि हुई। चर्च के बंधन से मुक्त होकर व्यापारी पूंजी निवेश द्वारा व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग धन्धों का विकास करने लगे। राष्ट्रीय पूंजी में वृद्धि हुई। श्रम की महत्ता स्थापित हुई जिसका राष्ट्र के औद्योगिक विकास में उपयोग हुआ।
समाज नैतिक अनुशासन बढा
मजहब सुधार आंदोलन से पूर्व नैतिकता का मापदण्ड चर्च के आदेश ही माने जाते थे। मजहबी आडंबर विरोधी गतिविधियों ने मनुष्य को सरल, सादा, त्यागमय और नैतिकता से परिपूर्ण जीवन यापन की शिक्षा दी। प्रोटेस्टेंटवादियों ने ही ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग विशुद्ध नैतिकता बताया। कॉल्विन के अनुयायियों ने सरल एवं सादा जीवन, वैयक्तिक नैतिक अनुशासन के आदर्श प्रस्तुत किए तो जेसुइट भी पीछे नहीं रहे।