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उत्तर वैदिक काल(1000-600 ई.पू.)
- जिस काल में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् की रचना हुई उसे उत्तरवैदिक काल (1000-600 ई.पू) कहते हैं।
- इस काल में आर्यों को भौगोलिक सीमा का विस्तार गंगा के पूर्व में हुआ। सप्तसैधव प्रदेश से आगे बढ़ते हुए आर्यों ने संपूर्ण गंगा घाटी पर प्रभुत्व जमा लिया। परंतु इनका विस्तार विंध्य के दक्षिण में नहीं हो पाया था।
- विस्तार के दूसरे दौर में आर्यों की सफलता का कारण लोहे के हथियार और अश्वचालित रथ थे।
- इस काल में कुरू, पांचाल, कोशल, काशी तथा विदेह प्रमुख राज्य थे।
- मगध में निवास करने वाले लोगों को अथर्ववेद में ‘व्रात्य’ कहा गया है।
- पांचाल की राजधानी कापिल्य थी जबकि कुरू की राजधानी आसंदीवत थी।
- परीक्षित और जनमेजय कुरू राज्य के प्रमुख राजा थे जबकि प्रवाहण जैवालि एवं आरुणि— श्वेतकेतु पांचाल राज्य के प्रतापी नरेश थे।
- गंगा यमुना दोआब और उसके नजदीक का क्षेत्र ब्रह्मर्षि देश कहा जाता था।
राजनीतिक स्थिति
- उत्तर वैदिक काल में कबीलाई सत्ता का विस्थापन क्षेत्रीय सता द्वारा हुआ। कई कबीलों ने मिलकर राष्ट्रों या जनपदों का निर्माण किया। पुरू एवं भरत मिलकर कुरू और तुर्वस एवं क्रिवि मिलकर पांचाल कहलाए।
- इस काल में राष्ट्र शब्द प्रदेश का सूचक था।
- उत्तर वैदिक काल में शासन तंत्र का आधार राजतंत्र था। राजा का पद वंशानुगत होता था यद्यपि जनता द्वारा राजा के चुनाव के उदाहरण भी मिलते हैं।
- स्थाई जीवन पद्धति की शुरुआत, कबीलों का एकीकरण तथा नियमित कर संग्रह के कारण राजा की शक्ति में वृद्धि हुई।
- क्षेत्रीय राज्यों के उदय होने से अब ‘राजन’ शब्द का प्रयोग किसी क्षेत्र विशेष के प्रधान के लिए किया जाने लगा।
- सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में राजा की उत्पत्ति का सिद्धांत मिलता है।
- राजा के राज्याभिषेक के समय ‘राजसूय’ यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता था। ऐसा माना जाता था इन यज्ञों से राजाओं को दिव्य शक्ति प्राप्त होती है। इसमें रत्निन नामक अधिकारियों के घर जाकर देवताओं को बलि दी जाती थी एवं राजा रत्निनों के घर का खाना खाते थे। शतपथ ब्राह्मण में 12 प्रकार के रत्निनों का विवरण दिया गया है।
- साम्राज्य विस्तार के उद्देश्य से अश्वमेध यज्ञ किया जाता था। यज्ञ तीन दिन तक चलता था तथा इसमें घोड़ा प्रयुक्त होता था। इस यज्ञ से विजय और संप्रभुता की प्राप्ति होती थी।
- वाजपेय यज्ञ का उद्देश्य राजा को नवयौवन प्रदान करना था। यह सत्रह दिनों तक चलता था। राजा की सगोत्रय बंधु के साथ रथ दौड़ होती थी, जिसमें राजा का रथ सबसे आगे चलता था।
- अथर्ववेद में राजा परीक्षित को ‘मृत्यु’ का देवता कहा गया है।
- अथर्ववेद से राजा के निर्वाचन की सूचना प्राप्त होती है।
- राजा का मुख्य कार्य सैनिक और न्याय संबंधी होते थे।
- प्रशासनिक संस्थाएं सभा और समिति का अस्तित्व तो था परंतु इनके पास पहले जैसे अधिकार नहीं रह गए थे। स्त्रियों का अब सभा, समिति में प्रवेश निषिद्ध हो गया था।
- इस काल में विदथ पूर्णतया लुप्त हो गया था।
- इस काल के अंत तक बलि और शुल्क के रूप में नियमित कर देना लगभग अनिवार्य हो गया था। संभवतः आय का सोलहवां हिस्सा कर के रूप में लिया जाता था।
- भागदूध कर संग्रह करने वाला अधिकारी होता था तथा संग्रहीता राजकोष के नियंता को कहा जाता था।
- सूत राजकीय चारण, कवि या रथवाहक था।
- राजा न्यायिक व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी था। न्याय व्यवस्था में देवो न्याय तथा व्यक्तिगत प्रतिशोध का स्थान था। गांवों के छोटे-मोटे विवाद ‘ग्रामवादिन’ द्वारा निपटाए जाते थे।
- स्थाई सेना अभी भी नहीं थी युद्ध के समय कबीले के सदस्य ही योद्धन का कार्य करते थे।
सामाजिक स्थिति
- संयुक्त एवं पितृसत्तात्मक परिवार की प्रथा इस काल में भी बनी रही। समाज वर्णव्यवस्था पर आधारित था तथा वर्ण अब जाति का रूप लेने लगा था। ब्राह्मण और क्षत्रिय के विशेषाधिकार इस काल में अत्यधिक विस्तृत हो गए।
- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्गों को द्विज कहा जाता था। शूद्रों की स्थिति में गिरावट आई।
- उत्तरवैदिक काल में नारियों की स्थिति में ऋग्वेद की अपेक्षा गिरावट आई। मैत्तायणो सहिता में स्त्रियों को मदिरा व पाशा के साथ तीन बुराइयों में रखा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्र को परिवार का रक्षक तथा पुत्री को दुःख का कारण बतलाया गया है।
- उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों के राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकार पर प्रतिबंध लगाना प्रारंभ हो गया परंतु धार्मिक यज्ञों में भाग लेने का अधिकार इस काल में भी बरकरार रहा।
- स्त्रियां सभा और समिति जैसी राजनीतिक संस्थाओं में भाग नहीं ले सकती थीं।
- आर्थिक दृष्टि से स्त्रियां, अपने पुरुष संबंधियों पर आश्रित थीं।
- बृहदारण्यक उपनिषद् जनक की सभा में गार्गी और याज्ञवल्क्य के बीच वाद-विवाद का उल्लेख करता है।
- चातुर्आश्रम व्यवस्था की जानकारी जाबालोपनिषद से मिलती है। इस काल में गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई तथा गोत्र बहिर्विवाह की प्रथा प्रारंभ हुई।
- उत्तरवैदिक कालीन समाज में अस्पृश्यता का उदय नहीं हुआ था। अंतरवर्ण विवाह भी संपत्र होते थे।
- मनुस्मृति के अनुसार विवाह के आठ प्रकार थे।
- स्मृतिकारों ने संस्कारों की संख्या 16 बताई है— 1. गर्भाधान 2. पुंसवन (पुत्र प्राप्ति हेतु मंत्रोच्चारण) 3. सीमांतोन्यन (गर्भ की रक्षा करना) 4. जातकर्म (पिता द्वारा नवजात शिशु का स्पर्श) 6. निष्क्रमण (बच्चे को पहली बार निकाला 7. अन्नप्राशन 8. कर्णवेध 9. चूडाकर्म 10. विद्यारंभ 11. उपनयन 12. वेदारंभ 13. केशांत 14. समावर्तन (विद्या समाप्ति के बाद) 15. विवाह 16. अंत्येष्टि।
आर्थिक स्थिति
- कृषि तथा विभिन्न शिल्पों के विकास के कारण जीवन स्थायी हो गया यद्यपि पशुपालन अभी भी व्यापक पैमाने पर जारी था परंतु अब खेती उनका मुख्य धंधा बन गया।
- शतपथ ब्राह्मण में हल संबंधी अनुष्ठान का लंबा वर्णन आया है।
- अथर्ववेद के अनुसार पृथुवैन्य ने सर्वप्रथम हल और कृषि को जन्म दिया।
- लोहे का उपयोग पहले शस्त्र निर्माण तथा बाद में कृषि यंत्रों के निर्माण में किया गया।
- भूमि पर सामूहिक स्वामित्व का प्रचलन था।
- काष्ठक संहिता में 24 बैलों द्वारा जुताई की चर्चा है।
- अथर्ववेद में सिंचाई के साधन के रूप में वर्णाकूप एवं नहर का उल्लेख है।
- वाजसनेयी संहिता में गोधूम (गेहूं) का उल्लेख है।
- छांदोग्य उपनिषद् में एक दुर्भिक्ष का उल्लेख है।
- चावल को वैदिक ग्रंथों में ब्रीहि कहा गया है। यजुर्वेद में चावल के पांच किस्मों— महाब्रीहि, कृष्णब्रीहि, शुक्लबीहि, आशुधान्य और हायन का उल्लेख है। अथर्ववेद में चावल की दो किस्मों— ब्रीहि एवं तंदुल की चर्चा है।
- शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं— जुताई, बुवाई, कटाई एवं मड़ाई का उल्लेख हुआ है।
- गेहूं, चावल, जौ, तिल, श्यामाक, उड़द, शारिशाका, दाल, गन्ना एवं शण इस काल की मुख्य फसल थीं।
- यजुर्वेद में हल को ‘सीर’ कहा गया है।
- वर्ष में दो फसलें उगाई जाती थीं। खाद के रूप में गोबर (शकृत और करिषु) का प्रयोग किया जाता था।
- गाय, बैल, घोड़ा, हाथी, भैंस, बकरी, गधा, ऊंट, सूअर आदि मुख्य पशु थे।
- अथर्ववेद के एक सूक्त में गाय, बैल और घोड़ों की प्राप्ति के लिए इंद्र से प्रार्थना की गई है।
- यजुर्वेद से व्यवसायिक दृष्टि से हाथी पालन व उनकी देखभाल करने की सूचना मिलती है, जिसे ‘हस्तिप’ कहा जाता था।
- बड़े बैल को ‘महोक्ष’ कहा जाता था।
- ऐतरेय ब्राह्मण में गधे को अश्विन देवताओं की गाड़ी खींचते हुए दिखाया गया है।
- यजुर्वेद में मछुआरे का उल्लेख है।
- अथर्ववेद में ऊंट गाड़ी तथा शतपथ ब्राह्मण में सूअर का उल्लेख है।
- उन्नत अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए अधिशेष उत्पादन नहीं होता था क्योंकि कृषि घर के सदस्यों द्वारा होता था। अभी तक दासों को कृषि कार्य में नहीं लगाया गया था।
- धातुकर्मी, मछुआरे, घोषी, कुल्लाल, भिषक आदि पेशों के विकास की जानकारी वाजसनेयी संहिता से मिलती है। इसके अलावा इस काल में स्वर्णकार, रथकार, लुहार, गायक, नर्तक सूत, व्याध, गोप, कुंभकार, वैद्य, ज्योतिषी, नाई आदि व्यवसायियों का उल्लेख मिलता है।
- कपास का उल्लेख नहीं हुआ है जबकि उर्णा (ऊन) शब्द का उल्लेख अनेक बार आया है।
- कपड़े की बुनाई कार्य में और निखार आया तथा इसमें रंगसाजी भी जुड़ गया। वस्त्रों की बुनाई एवं उन पर कढ़ाई का काम प्राय: औरतें ही किया करती थीं। ऐसी औरतों को ‘पेशस्कारी’ कहा जाता था।
- लोहे के लिए वाजसनेयी संहिता में ‘श्याम अयस’ तथा जैमिनी ब्राह्मण में ‘कृष्ण अयस’ का प्रयोग हुआ है।
- अथर्ववेद में रजत (चांदी) का उल्लेख है। आर्य लोग तांबे के अतिरिक्त सोना, चांदी, सीसा, टिन, पीतल, रांगा आदि धातुओं से परिचित हो चुके थे।
- व्यावसायिक संगठन के लिए ऐतरेय ब्राह्मण में ‘श्रेष्ठी’ तथा वाजसनेयी सहिता में ‘गण’ एवं ‘गणपति’ शब्द का उल्लेख हुआ है।
- निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल तथा रत्ति का माप की भिन्न-भिन्न इकाइयां थीं। रत्तिका को तुलाबीज भी कहा गया है। 1 रत्ती = 18 ग्राम होता था। कृष्णल । रत्ती या 1.8 ग्रेन के बराबर होता था।
- सिक्कों का नियमित प्रयोग नहीं होता था और मुख्यत: वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलन में थी।
- तैतरीय आरण्यक में नगर का प्रथम बार उल्लेख हुआ है।
- शतपथ ब्राह्मण में पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों का उल्लेख हुआ है। व्यापार जल एवं थल दोनों मार्ग से होता था।
- शतपथ ब्राह्मण में पहली बार सूदखोरी एवं महाजन की चर्चा मिलती है। ऋण को ‘कुसिद’ तथा सूदखोरों को ‘कुसिदिन’ कहा गया है।
धार्मिक स्थिति
- उत्तर वैदिक काल में यज्ञ अनुष्ठान एवं कर्मकांडीय गतिविधियों में वृद्धि हुई। अनुष्ठानों एवं कर्मकांडों पर बल दिए जाने के फलस्वरूप इसके विरुद्ध एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई जिसे आरण्यक तथा उपनिषद् के माध्यम से उठाया गया। भौतिक सुखों की प्राप्ति ही धर्म का उद्देश्य इस काल में भी बना रहा।
- लोगों को पंच महायज्ञ करने के भी धार्मिक आदेश थे: ये है— 1. ब्रह्म यज्ञ- अध्ययन एवं अध्यापन 2. देव यज्ञ- होम कर देवताओं की स्तुति 3. पितृ यज्ञ- पितरों को तर्पण करना 4. मनुष्य यज्ञ- अतिथि सत्कार तथा मनुष्य के कल्याण की कामना 5. भूत यज्ञ-जीवधारियों का पालन।
- यज्ञों में पशु बलि को प्राथमिकता दी गई तथा गाय, कपड़ा, सोना, घोड़ा आदि दान स्वरूप दिए जाते थे।
- शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख आया है कि अश्वमेघ यज्ञ में पुरोहित को उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन सभी दिशाओं का दान कर देना चाहिए।
- तीन ऋण इस प्रकार हैं— देव ऋण (देवताओं तथा भौतिक शक्तियों के प्रति दायित्व), ऋषि ऋण और पितृ ऋण (पूर्वजों के प्रति दायित्व)।
- उत्तर वैदिक काल में सृष्टिकर्ता के रूप में ब्रह्मा, पालनकर्ता या संरक्षणकर्ता के रूप में विष्णु तथा पशुओं के देवता रुद्र सर्वप्रमुख हो गए थे।
- इंद्र , अग्नि, वरुण तथा अन्य ऋग्वैदिक देवताओं का महत्व कम हो गया। प्रजापति प्रमुख देवता के रूप में स्थापित हो गया। प्रजापति को हिरण्यगर्भ भी कहा जाता था।
- अथर्ववेद में लोक धर्म की झांकी मिलती है। इंद्र द्वारा नागों एवं राक्षसों के वध का उल्लेख मिलता है।
- अश्विन को कृषि रक्षक का देवता तथा सवितृ को नए मकान बनाने वाला देवता माना जाने लगा।
- प्रतीकों की पूजा का आरंभ भी इसी काल में हुआ। पूषण् जो गौरक्षक थे, बाद में शूद्रों के भी देवता बन गए।
- उत्तरवैदिक काल के अंतिम दौर में यज्ञ, पशु बलि तथा कर्मकांड के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उपनिषद् इन्हीं भावनाओं की अभिव्यक्ति है जिसमें यज्ञ और कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान को मुक्ति का मार्ग बतलाया गया है।
- आर्यों ने मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म से संबंधित विचारों को ग्रहण किया। वृहदारण्यक उपनिषद में पहली बार पुनर्जन्म के सिद्धांत को मान्यता प्रदान की गई।
- त्रिमूर्ति की संकल्पना मैत्रेयी उपनिषद में प्रकट हुई है।