महिलाओं के विरुद्ध साइबर अपराध: चुनौतियाँ और पुलिस की भूमिका
दो विश्व युद्धों और अनगिनतयुगप्रवर्तनकारी घटनाओं को समेटे हुये 20वीं सदी के अंत में सभ्यता के प्रारम्भ से अब तक की सबसे महत्वपूर्ण क्रांति हुई है जिसे ‘सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति’ के नाम से जाना जाता है। वैश्वीकरण के इस दौर में इंटरनेट द्वारा सूचनाओं व आंकड़ों का आदान प्रदान बहुत सरल, तीव्र और व्यापक हो गया है तथा इस क्रांति के एक उप उत्पाद ; सोशल मीडिया का प्रचलन भी आजकल सर्वव्याप्त हो चुका है। दौड़ती हुई प्रौद्योगिकी तथा नित नए तकनीकी अनुसंधानों के फलस्वरूप इंटरनेट और वेब हर किसी के लिए सुलभ है। मोबाइल, टैबलेट, लैपटॉप, कम्प्यूटर द्वारा विविध सोशल मीडिया वैबसाइट और एप्लिकेशन यथा फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विट्टर, टिंडर, इंस्टाग्राम आदि का प्रचालन तथाइससे निर्मित आभासी ‘डिजिटल समाज’बहुत लोकप्रिय बन गया है।सोशल मीडिया की इस वर्चुअल दुनिया में महिलाओं ने भी; विशेषत: युवा व कामकाजी महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर अपनी उपस्थिति दर्ज की है।
बढ़ते इंटरनेट के इस्तेमाल और हर गली मोहल्ले में पैर पसारते सोशल मीडिया के प्रभाव के साथ ही 21वीं सदी के भारत के समक्ष कई सवाल आ खड़े हुए हैं; जैसे इंटरनेट और स्मार्टफोन की लत लगा चुकी इस युवा पीढ़ी पर सोशल मीडिया के क्या दुष्प्रभाव होंगे? ऑनलाइन अपराधों की दुनिया में महिलाओं को सुरक्षित ‘साइबर स्पेस’ कैसे उपलब्ध करवाया जा सकता है? महिलाओं के विरुद्ध ऑनलाइन होने वाले अपराध जैसे स्टॉकिंग, ऑनलाइन दुर्व्यवहार, ट्रोलिंग, साइबर ठगी व धोखाधड़ी, ऑनलाइन ब्लेकमेलिंग, निजी जानकारी की चोरी आदि किस प्रकार समाप्त किया जा सकते हैं?इंटरनेट की इस आभासी दुनिया में साइबर अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस और साइबर इकाइयों को किस प्रकार सक्षम बनाया जाए तथा उनके विरुद्ध किस प्रकार से विधिक कार्यवाही की जाए? तरक्की की डगर पर तेजी से आगे बढ़ते इक्कीसवीं सदी के नए भारत में महिलाओं की ऑनलाइन सुरक्षा और उनके विरुद्ध होने वाले अपराधों से निपटने कि लिए इन प्रश्नों पर विचार किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है।
सोशल मीडिया एक विश्वव्यापी गैर-परंपरागत संचार माध्यम है जो एक आभासी दुनिया की रचना करता है। यह द्रुत गति से सूचना प्रवाह का स्रोत है जिसमें व्यक्ति सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में अपने वास्तविक और आभासी मित्रों व समूहों से विचार साझा कर सकता है। आज दुनियाभर में मुफ्त और बिना किसी सदस्यता शुल्क के सैंकड़ों सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स उपलब्ध हैं जिन पर इंटरनेट सेवा युक्त किसी स्मार्टफोन या कम्प्यूटर से बहुत आसानी से खाता बना कर अपनी पसंद के अनुसार सूचना, जानकारी, तस्वीरें और अपनी स्थिति से लेकर अपने राजनैतिक विचारधारा और निजी विचार साझा किए जा सकते हैं।
भारत में स्मार्ट मोबाइल की गिरती कीमतें, फैलते बाज़ार और चलाने में आसान होने के कारण हर हाथ तक स्मार्टफोन पहुँच बना चुके हैं; साथ ही टेलिकॉम कंपनियों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण नाममात्र के शुल्क में डाटा प्लान मिलनेकी वजह से इंटरनेट और सोशल मीडिया ने भारत के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पैठ बना ली है। महिला शिक्षा के बढ़ते स्तर और दैनिक जीवन में मोबाइल की अनिवार्यता ने महिलाओं के बीच भी सोशल मीडिया को खासा लोकप्रिय बना दिया है। कामकाजी महिलाओं और छात्राओं के अतिरिक्त घरेलू महिलाओं की भी सोशल मीडिया पर अच्छी ख़ासी उपस्थिति हो गई है।
महिलाओं को सोशल मीडिया पर उपयोगी सामग्री, मनोरंजन और सूचनाओं के साथ साथ रोजाना विभिन्न प्रकार के ऑनलाइन दुर्व्यवहार, अनचाहे मित्रता प्रस्ताव, दृश्यरसिता और आपराधिक ताक-झांक से भी दो चार होना पड़ रहा है। महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में स्टॉकिंग अर्थात ऑनलाइन पीछा या निगरानी करना सबसे ज़्यादा किया जाने वाला अपराध है जिसमें अपराधी, लक्षित महिला की जानकारी या इच्छा के बिना अथवा मित्रता न करने के स्पष्ट संकेत देने के बावजूद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर बार बार मित्रता के लिए दुराग्रह करता है या महिला द्वारा अपनी प्रोफ़ाइल पर साझा की गई जानकारियों का दुरुपयोग उस महिला की मानहानि, साइबर उत्पीड़न,चरित्र हनन या ब्लेकमेलिंग की लिए करता है। ऐसे अधिकतर मामलों में अपराधी महिला का परिचित होता है जो इंटरनेट की अनामता के सहारे सोशल मीडिया पर महिला को स्टॉक करता है।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे फेसबुक, इन्स्टाग्राम, ट्विट्टर आदि पर महिलाओं द्वारा अपलोड की जाने वाली तसवीरों को साइबर अपराधी फोटो एडिटिंग सॉफ्टवेर के माध्यम से अश्लील बना कर उन्हें जबरदस्ती मित्रता या यौन शोषण के लिए ब्लेकमेल करते हैं और यदि महिला द्वारा भय से ऐसा प्रस्ताव मान लिया जाता है तो अपराधी उसे इसी दुष्चक्र में फंसा कर रखते हैं। कई बार महिलाओं द्वारा ऑनलाइन डेटिंग वैबसाइटस पर या सोशल मीडिया पर निजी संदेशों के माध्यम से कथित प्रेम एवं भावनात्मक संबन्धों में विश्वासपूर्वक किसी वादे के प्रभाव में आकर निजी एवं अंतरंग क्षणों की विडियो या फोटो भेज दी जाती हैं जिसका उपयोग ऐसे कथित सोशल मीडिया मित्रों और साइबर अपराधियों द्वारा महिलाओं को यौन शोषण और साइबर उत्पीड़न के भँवर जाल में फँसाने के लिए किया जाता है।
साइबर अपराधों के अंतर्गत पासवर्ड से सुरक्षित किए गए कम्प्यूटर या नेटवर्क प्रणाली में अवैध रूप से घुसकर उसमें स्टोर की गई जानकारी और डाटा चुरा लेना ‘हैकिंग’ कहलाता है। ब्लैक हैट हैकर्ससोशल मीडिया पर शेयर की गयी ईमेल आईडी को हैक करके अथवा ईमेल के माध्यम से कम्प्यूटर या मोबाइल फोन पर फिशिंग द्वारा अथवा ट्रोजेन के रूप में किसी दूषित सॉफ्टवेर या ‘शैल प्रोग्राम’के माध्यम से मोबाइल या कम्प्यूटर प्रणाली में बैक डोर प्रवेश कर लेते हैं। इस स्थिति में हैकर्स न केवल उस मोबाइल या कम्प्यूटर में स्टोर डाटा को चुरा कर उसका उपयोग कर सकते हैंबल्कि उस मोबाइल या कम्प्यूटर से की जाने वाली सारी गतिविधियों जैसे कॉल बातचीत, रिकॉर्डर, विडियो कैमरा आदि को अपने स्तर पर नियंत्रित कर इसका उपयोग यौन उत्पीड़न, ब्लेकमेलिंग, साइबर उद्दापन, प्रतिशोध,ऑनलाइन पीडोफिलिया,चाइल्ड पोर्नोग्राफी, मानहानि आदि के लिए कर सकते हैं। महिलाएं और बच्चे इन अपराधियों के लिए आसान शिकार होते हैं तथा मोबाइल तकनीक के अत्यधिक प्रसार किन्तु कम डिजिटल साक्षरता और समुचित प्राइवेसी सेटिंग्स के ज्ञान के अभाव के कारण महिलाएं और किशोरियाँ हैकिंग का शिकार आसानी से हो सकती हैं।
वर्ष 2019 के अंत तक भारत में तकरीबन 63 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता थे लेकिन इनमें से अधिकतर, विशेषत: घरेलू महिलाएं और बच्चे इंटरनेट का उपयोग बिना किसी औपचारिक डिजिटल ज्ञान के कर रहें हैं। भारत सरकार द्वारा वर्ष 2018 में चलाये गए महत्वाकांक्षी ‘डिजिटल साक्षरता अभियान’ का लक्ष्य है कि भारत में प्रत्येक परिवार से कम से कम एक सदस्य डिजिटल रूप से साक्षर हो लेकिन अभी भी भारत में डिजिटल साक्षरता और साइबर जागरूकता का बड़े पैमाने पर अभाव नजर आता है। इतनी कम डिजिटल साक्षरता होने के बाद भी इंटरनेट का निरंतर बढ़ता हुआ उपयोग और सोशल मीडिया पर भारतीयों की अधिक होती निर्भरता ने जहां एक और हैकर्स व साइबर अपराधियों के लिए अपराध करने के अवसर बढ़ा दिये हैं वहीं दूसरी और साइबर ज्ञान की कमी से जूझ रही पुलिस के लिए चुनौतियों के द्वार खोल दिये हैं।
‘राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो’ के अनुसार वर्ष 2017 में साइबर अपराधों के मामले वर्ष 2016 के मुक़ाबले लगभग दो गुने होकर 21,796 हो गए हैं जिनमें से 1460 मामले यौन शोषण से संबंधित हैं। ये आंकड़े केवल उन अपराधों के हैं जो पीड़ितो द्वारा रिपोर्ट किए गए हैं जबकि वास्तव में ऐसे अपराधों की संख्या कई गुना है। साइबर विशेषज्ञों के अनुसार आने वाले कुछ वर्षों में महिलाओं द्वारा साइबरस्टॉकिंग, ऑनलाइन जासूसी, चरित्र हनन और मानहानि के अपराधों की रिपोर्ट की संख्या में तीव्र उछाल देख जा सकता है और भविष्य में ऐसे अपराधों की संख्या बढ़ सकती है।
साइबर की आभासी दुनिया में डाटा, सूचनाएं और अपराध सब कुछ वर्चुअल होता है, अपराधी पीड़ित व्यक्ति से हज़ारों मील दूर विश्व के किसी भी भाग से ऐसे अपराध को अंजाम दे सकता है और पीड़ित व्यक्ति को अपराधी की पहचान, स्थिति के बारे में कोई जानकारी नहीं होती।साइबर अपराधी अपनी पहचान छुपाने के लिए मल्टी लेयर ब्राउज़र और छद्म प्रोफ़ाइल या ईमेल का उपयोग करते हैं और ये अपराधी मित्रता या भावनात्मक संबल देने के नाम पर कई महिलाओं का विश्वास प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। यही अनामता और गुमनामी साइबर अपराधियों की ताकत बन जाती है और ऐसे अपराधी और अधिक अपराध करने के लिए प्रेरित होते हैं। इस प्रकार आभासी दुनिया के ये अपराध जहां एक और गुमनाम अपराधियों के बीच लोकप्रिय हो चुके हैं वही दूसरी और ये अपराध पुलिस और एंटी-साइबर क्राइम यूनिट्स के लिए सिर दर्द बनते जा रहे हैं।
वर्तमान में लंबी कानूनी प्रक्रिया, डिजिटल साक्षरता की कमी, सामाजिक बदनामी के भय और समाज में सर्वव्याप्त पुरुषवादी मानसिकता के कारण अधिकतर महिलाएं ऐसे साइबर अपराधों के बारे में अपने परिवार वालों से चर्चा नहीं कर पाती और न ही इनकी रिपोर्ट दर्ज करवाती हैं। उचित साइबर ज्ञान के अभाव में यदि पीड़िता या उसके परिवारजन जब पुलिस अथवा साइबर प्रकोष्ठ में इस आशय की शिकायत या परिवाद दर्ज करवाने के लिए संपर्क करते हैं तो पुलिस द्वारा अपराधी का आईपी पता या यूआरएल मांगा जाता है तो वे संबंधित जानकारी उपलब्ध नहीं करवा पाते। ऐसे में अपर्याप्त और अधूरी जानकारी के आधार पर परिवादी की शिकायत पर उचित विधिक कार्यवाही करना पुलिस के लिए सर्व प्रमुख चुनौती है।
स्मार्टफोन संस्कृति, इंटरनेट और सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं के तेज़ी से बढ़ती संख्या भी पुलिस के एक चुनौती है क्योंकि इससे अपराधियों और पीड़ितों के संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।साइबर अपराध करने के लिए जो भी उपकरण और यंत्र आवशयक हैं वे सभी बाज़ार में वैध रूप से बिक्री के लिए सर्वसुलभ हैं और हैकिंग के लिए विशेष रूप से विकसित किए गए सॉफ्टवेर यथा टोर ब्राउज़र, काली लिनक्स, वर्चुअल बॉक्स, पासक्रेक आदि मुफ्त में डाउनलोड के लिए आसानी से मिल जाते हैं। आज एक स्मार्ट मोबाइल के साथ तेज़ गति का इंटरनेट कनैक्शन प्राप्त करना आज बेहद आसान है और इसके साथ ही अपराधी साइबर अपराध करने के लिए तैयार हो जाता है। स्मार्टफोन और सिम कार्ड की खरीद और उपयोग करने के लिए न तो किसी लाइसेन्स की आवश्यकता है और इन ही किसी प्रकार का कोई नियंत्रण है।
साइबर एवं आभासी दुनिया के अपराधों को वास्तविक दुनिया के अपराधों के मुक़ाबले परिभाषित करना कठिन है और दांडिक विधि के उपबंध रोज विकसित होते साइबर अपराधों को परिभाषित करने में समर्थ प्रतीत नहीं होते हैं। यद्यपि भारत में अक्तूबर 2000 से ही ‘सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम,2000’लागू है जिसे वर्ष 2008 में संशोधित भी किया गया है। लेकिन साइबर अपराधी दुनिया के किसी भी देश से भी अपराध कर सकते हैं, ऐसे में जिन विकासशील और पिछड़े देशों में समुचित साइबर विधि नहीं हैं वे देश इन अपराधियों के लिए ‘सेफ हेवन’ हैं। ऐसे में पहचान और पता मालूम होने पर भी पुलिस और प्रवर्तन एजेंसियों के समक्ष किसी अन्य देश से साइबर अपराध कर रहे अपराधी के विरुद्ध विधिक कार्यवाही करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
साइबर अपराधों पर वैश्विक कानून के अभाव के साथ साथ पुलिस बल में तकनीकी एवं साइबर के क्षेत्र में विशेष योग्यता रखने वाले मानव संसाधन का अभाव देखा जा सकता है। पुलिस अनुसंधान अधिकारी अपने परंपरागत ज्ञान के साथ साइबर अपराधों की खोज-बीन में असहाय नजर आते हैं और उन्हें निजी साइबर प्रतिष्ठानों पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे न केवल अनुसंधान प्रक्रिया और पीड़िता की पहचान की गोपनीयता खतरे में पड़ती है बल्कि इन मामलों में अनावश्यक देरी भी होती है। सोशल मीडिया और इंटरनेट की दुनिया में होने वाले साइबर अपराध नयी सदी के अपराध हैं और इनको सुलझाने में पुलिस के परंपरागत उपागम और तकनीकें पूरी तरह से कारगर नहीं हैं। साइबर अपराधों के अनुसंधान और अभियोजन के लिए विशिष्ट इंटरनेट आधारित उपकरणों, यंत्रों, तकनीकों और सॉफ्टवेयर की आवश्यकता है। वर्तमान में साइबर अपराधी VoIP अर्थात इंटरनेट प्रोटोकॉल आधारित संवाद, एंक्रिप्शन तकनीक, स्टेगनोग्राफी आदि नवीन तकनीकों को उपयोग करते हैं जिन्हें पुरानी विधियों और तकनीकों से हल कर पाना बहुत जटिल है। साथ ही, अपराधी के पहचान, साइबर अपराधों के साक्ष्यों को लेना, उनका विश्लेषण करना और उन साक्ष्यों को मूल रूप में न्यायालय में प्रस्तुत कर सफल अभियोजन करना पुलिस और साइबर इकाइयों के लिए चुनौतीपूर्ण है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में जहां साइबर अपराध विरोधी इकाइयों और ‘कम्प्यूटर इमर्जेंसी रिस्पोंस टीम’ के क्रियान्वयन का दायरा सीमित है वहाँ सोशल मीडिया अपराधों समेत तमाम साइबर अपराधों के संबंध में पुलिस की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। अपराध घटित होने के बाद पुलिस की भूमिका प्रथम प्रतिकर्ता की होती है और पुलिस प्रणाली परिवाद दर्ज करने से लेकर अपराध अनुसंधान, साक्ष्य संग्रहण, पूछताछ और न्यायलय में अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए उत्तरदायी है। पुलिस बल के सदस्यों को महिलाओं के विरुद्ध साइबर अपराधों के प्रति और अधिक संवेदनशील किए जाना चाहिए ताकि ऐसे अपराधों की शिकायत प्राप्त होते ही पुलिस द्वारा समुचित कार्यवाही प्रारम्भ कर दी जाए। सम्पूर्ण पुलिस प्रणाली को जन हितैषी और लोक मित्र की भूमिका निभाते हुये साइबर विधि एवं नियमों के अनुरूप आपराधिक मामलों को दर्ज करने की प्रक्रिया का सरलीकरण करना चाहिए तथा परिवादी महिला की पहचान को गोपनीय रखने का प्रावधान करना चाहिए ताकि ऐसे अपराधों की समय पर रिपोर्टिंग हो सके।
इन अपराधों की समुचित रिपोर्टिंग के लिए केंद्रीय स्तर पर संचालित ‘साइबर क्राइम रिपोर्टिंग पोर्टल’ की तर्ज पर सभी राज्यों की पुलिस संगठनों द्वारा साइबर क्राइम पोर्टल की शुरुआत की जानी चाहिए तथा नि:शुल्क हेल्पलाइन भी शुरू की जानी चाहिए। साथ ही ‘राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो’ को भी महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध होने वाले साइबर अपराधों का पृथक श्रेणी में अभिलेख संधारित करना चाहिए ताकि पुलिस और साइबर विधि प्रवर्तन एजेंसियों को निगरानी करने के लिए सही आंकड़े मिल सकें।
अपराध के संबंध में परिवाद दर्ज करने के पश्चात पुलिस द्वारा अनुसंधान की प्रक्रिया तुरंत प्रारम्भ की जानी चाहिए ताकि साइबर अपराधी इंटरनेट से अपने डिजिटल पदचिन्हों को न मिटा दे। इस हेतु पुलिस बल में शामिल साइबर अपराध अनुसंधान अधिकारियों को सोशल मीडिया वैबसाइट प्रचालन, डिजिटल स्पेस, नेटवर्किंग, साइबर सुरक्षा और कम्प्यूटर प्रणाली का गहन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि इस हेतु निजी साइबर प्रतिष्ठानों पर पुलिस की निर्भरता कम हो सके और अनुसंधान में अनावश्यक देरी न हो। इसके लिए प्रत्येक पुलिस थाने से कम से कम दो अनुसंधान अधिकारियों, जिनमें एक महिला हो, को कम्प्यूटर फोरेंसिक्स, डिजिटल साक्ष्य संग्रहण, डाटा विश्लेषण, आईपी एड्रैस ट्रैकिंग, एथिकल हैकिंग आदि के लिए नियमित प्रशिक्षण और दक्षता निर्माण कार्यक्रमों का प्रावधान किया जाना चाहिए।
साइबर अपराधियों को गिरफ्तार कर उन्हें विधि के अनुसार दंड दिलवाने की प्रक्रिया में पुलिस संगठन में भौतिक संसाधनों को विकसित करना भी बहुत महत्वपूर्ण है। प्रत्येक राज्य में एक राज्य स्तरीय अत्याधुनिक ‘साइबर फोरेंसिक प्रयोगशाला’ स्थापित की जानी चाहिए तथा रेंज मुख्यालय पर ‘क्षेत्रीय साइबर फोरेंसिक प्रयोगशालाओं’ की स्थापना की जानी चाहिए। राजस्थान में जिला स्तर पर स्थापित ‘अभय कमान सेंटर’ को साइबर अपराधों के लिए स्थानीय एजेंसी के रूप मे विकसित किया जाना चाहिए। साथ ही पुलिस थाने के स्तर पर ‘साइबर सेल’ की स्थापना कर साइबर अपराधों के अनुसंधान में आवश्यक सभी भौतिक संसाधनों, उपकरणों और सॉफ्टवेयर्स की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए तथा साइबर अपराधों के समयबद्ध और त्वरित निपटान के लिए ‘मानक संचालन प्रक्रिया’ निर्धारित की जानी चाहिए।
अपराधों के त्वरित अनुसंधान के अतिरिक्त पुलिस द्वारा महिलाओं और किशोरियों को सोशल मीडिया पर होने वाले संभावित अपराधों से बचाने के लिए स्थानीय पुलिस थाने से संबद्ध विभिन्न सामाजिक साइबर इकाइयों के गठन और सामुदायिक कार्यक्रमों के माध्यम से जागरूक किया जाना चाहिए। मध्य प्रदेश पुलिस द्वारा संचालित ‘सेल्फी विद पुलिसमैन’ कार्यक्रम इस दिशा में एक सार्थक पहल है। पुलिस द्वारा सोशल मीडिया पर साइबर अपराधों की रिपोर्ट एवं प्राइवेसी सेटिंग्स के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए विभिन्न प्रकार के पेज और ट्विट्टर हैंडल जैसे ‘साइबरदोस्त’ का संचालन किया जाना चाहिए।
इंटरनेट और सोशल मीडिया पर महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध, ऑनलाइन हिंसा, दुर्व्यवहार के मामलों से निपटने के लिए और महिलाओं को सुरक्षित साइबर स्पेस उपलब्ध करवाने के लिए विशेष विधिक प्रावधान किए जाने चाहिए तथा पुलिस को समुचित शक्तियाँ भी प्रदान की जानी चाहिए। बेहतर आईपी एड्रैस ट्रैकिंग के लिए अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को अपने सर्वर भारत में स्थापित करने के लिए निर्देशित किया जाना चाहिए तथा ‘पब्लिक इंटरनेट टर्मिनल’ से कनैक्ट होने के लिए अनिवार्यत: पहचान जाहिर करने के प्रावधान किए जाने चाहिए ताकि साइबर अपराधियों की अनामता न बनी रह सके। साथ ही, देशव्यापी साइबर जागरूकता और डिजिटल ज्ञान के प्रसार के लिए संचालित ‘राष्ट्रीय डिजिटल साक्षरता मिशन’ को माध्यमिक और महविद्यालय स्तर पर अनिवार्य किया जाना चाहिए।
भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले विकासशील देश में साइबर अपराधों से लड़ने के लिए ‘राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा रणनीति’ के अंतर्गत एक प्रभावी और बहु आयामी किन्तु व्यावहारिक ‘साइबर अपराध विरोधी रणनीति’ की रचना और क्रियान्वयन आवश्यक है। इस रणनीति के अंतर्गत साइबर अपराधियों के लिए स्पष्ट किन्तु कठोर विधिक प्रावधान, ऑनलाइन साइबर अपराध रिपोर्टिंग पोर्टल,कम्प्यूटर फोरेंसिक प्रयोगशालाओं और साइबर अपराध विरोधी प्रकोष्ठों की स्थापना और संचालन, लोक अभियोजकों, जजों और पुलिस बल का साइबर प्रशिक्षण, डिजिटल जागरूकता, सोशल मीडिया, टेलीकॉम और इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों के लिए अनिवार्य निर्देश, रिसर्च और अनुसंधान आदि पक्षों को समाहित किया जाना चाहिए।
तेजी से बढ़ती सूचना संचार तकनीक के इस युग में अपराधियों द्वारा अपराध करने के तरीकों में व्यापक परिवर्तन आया है। साइबर ज्ञान की कमी से जूझते डिजिटली रूप से लगभग निरक्षर भारतीय समाज में महिलाओं के विरुद्ध अपराध करने से लिए सोशल मीडिया अपराधियों के लिए एक मजबूत हथियार बन गया है। जहां एक तरफ महिलाओं द्वारा इन अपराधों की शिकायत ही बहुत कम संख्या में की जा रही है वही दूसरी तरफ पुलिस संगठन भी नव तकनीक एवं डिजिटली सशक्त मानव तथा भौतिक संसाधनो के अभाव में समुचित कार्यवाही नहीं कर पा रहे हैं। महिलाओं को सुरक्षित इंटरनेट व भयमुक्त साइबर स्पेस उपलब्ध करवाने तथा वास्तविक अपराधों की इस आभासी दुनिया के अपराधियों को समुचित दंड दिलवाने के लिए पुलिस संगठनों में नीतिगत एवं प्रचालनात्मक स्तरों पर व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है। जब महिलाओं के विरुद्ध साइबर अपराधों के लिए समग्र दृष्टिकोण आधारित उपागम अपना कर पुलिस संगठनों के साथ साथ न्याय प्रणाली, स्थानीय प्रशासन, शैक्षिक पाठ्यचर्या आदि में समुचित सकारात्मक परिवर्तन किए जाएंगे तभी महिलाएं इस ‘डिजिटल समाज’ में भयमुक्त होकर राष्ट्र की प्रगति में अपना योगदान देने में सक्षम हो सकेंगी।
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