मूल अधिकार (Fundamental Rights)

Admin Comment: श्रीमती अनिता शर्मा (जयपुर) का आर्टिकल जो आरएएस (RAS), सिविल सेवा तथा राजस्थान एवं भारत की विभिन्न परीक्षाओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।

भारतीय संविधान के मूल अधिकारसंविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक मूल अधिकारों का विवरण है जो कि अमेरिकी संविधान से प्रभावित रहे हैं।

मूल अधिकार का अर्थ

मूल अधिकार वे अधिकार होते हैं जो राज्य की निरंकुशता के विरुद्ध नागरिकों के हितों की सुरक्षा प्रदान करते हैं, क्योंकि यह व्यक्ति के चहुमुखी विकास( भौतिक, बौद्धिक,नैतिक एवं आध्यात्मिक ) के लिए आवश्यक होते हैं I

वैश्विक स्तर पर मूल अधिकारों की स्थिति

  • यूएसए के संविधान में संविधान की सर्वोच्चता को प्राथमिकता दी गई है लेकिन इंग्लैंड में संसद की सर्वोच्चता को प्राथमिकता दी गई है।
  • यूएसए के संविधान में विधि की यथोचित प्रक्रिया को अपनाया गया है जबकि इंग्लैंड में संविधान में  विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को अपनाया गया।
  • यूएसए के संविधान में मूल अधिकारों का निलंबन का अधिकार संघीय न्यायालय को दिया गया है इंग्लैंड में मूल अधिकारों के निलंबन का अधिकार संसद को  होता है। 

मूल अधिकारों की विशेषताएं

मूल अधिकारों को संविधान में निम्नलिखित विशेषताओं के साथ सुनिश्चित किया गया है:

  1. कुछ मूल अधिकार नकारात्मक है जबकि कुछ मूल अधिकार सकारात्मक है।
  2. यह असीमित नहीं है लेकिन वाद योग्य होते हैं राज्य उन पर युक्ति प्रतिबंध लगा सकते हैं।
  3. मूल अधिकारों की प्रतिरक्षा और प्रतिभूति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई है
  4. मूल अधिकार स्थायी प्रकृति के नहीं है अर्थात संसद इसमें संविधान के आधारभूत ढांचे के अधीन रहते हुए संशोधन कर सकती हैं।
  5. अनुच्छेद 20 व 21 को छोड़कर आपातकाल में मूल अधिकारों का निलंबन किया जा सकता है
  6. कुछ मूल अधिकार केवल नागरिकों को प्राप्त है जबकि कुछ मूल अधिकार नागरिक व गैर नागरिक को दोनों को प्राप्त है।
  7. कुछ मूल अधिकार प्रत्यक्षत: लागू होते हैं जबकि कुछ को लागू कराने के लिए विधायिका  को कानून बनाने की आवश्यकता होती हैं।
  8. मूल अधिकारों को सेना विधि के दौरान प्रतिबंधित किया जा सकता है।

राज्य की परिभाषा

अनुच्छेद 12

अनुच्छेद 12 के अंतर्गत राज्य को परिभाषित किया गया है तथा उसमें केंद्र की सरकार तथा संसद, राज्य की सरकार तथा विधान मंडल तथा सभी स्थानीय निकाय तथा हर उस अधिकरण को शामिल किया गया है जिसे संविधान के अंतर्गत नियम बनाने,कानून बनाने, आदेश जारी करने तथा अधिसूचना का अधिकार प्राप्त है

अनुच्छेद 13 मूल अधिकारों से असंगत विधियां

न्यायिक पुनरावलोकन— यह अधिकार मौलिक अधिकारों का सुरक्षा कवच है क्योंकि इसके अंतर्गत न्यायपालिका को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि राज्य द्वारा निर्मित कोई भी ऐसे विधि जो कि मौलिक अधिकारों से असंगत हो उसे अवैध घोषित कर सकती है। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से न्यायिक पुनरावलोकन की अभिव्यक्ति होती  हैं।

न्यायिक पुनरावलोकन के अंतर्गत निम्न सिद्धांतो का प्रतिपादन किया गया है—

  1. आच्छादन का सिद्धांत/ग्रहण का सिद्धांत:- संविधान लागू होने के पूर्व कि कोई भी विधि यदि मौलिक अधिकार से असंगत हो तो वह स्वत: ही शून्य हो जाएगी अर्थात उस पर ग्रहण लग जाएगा।
  2. पृथक्करण का सिद्धांत:- राज्य द्वारा बनाई गई कोई भी विधि अथवा  कोई भाग जो की मौलिक अधिकार असंगत है न्यायपालिका के द्वारा केवल उसी भाग को अवैध घोषित किया जाएगा न कि संपूर्ण कानून को।
  3. अधित्याग का सिद्धांत:- नागरिकों के द्वारा अपने मौलिक अधिकारों का  परित्याग नहीं किया जा सकता है।

उपर्युक्त सिद्धांतों के माध्यम से न्यायपालिका मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है।

मौलिक अधिकारों के संशोधन/संसद तथा न्यायपालिका के मध्य संघर्ष

मौलिक अधिकार में संशोधन  की शक्ति अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद को प्रदान की गई है। परंतु अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि राज्य के द्वारा किसी भी ऐसी विधि का निर्माण नहीं किया जाएगा जो कि मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं अथवा मौलिक अधिकारों को छीनती है। मौलिक अधिकारों को लेकर संसद तथा न्यायपालिका के मध्य संघर्ष का परीक्षण निम्न वादों के माध्यम से किया जा सकता है।

शंकर प्रसाद बनाम भारत संघ वाद 1951

इस बात में सर्वपथम प्रथम संविधान संशोधन 1951 को इस आधार पर चुनौती प्रदान की गई कि वह मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करता है वादियों का मानना था कि संविधान संशोधन की शक्ति 13(2) अनुच्छेद के अंतर्गत विधि में शामिल हैं अर्थात संसद संविधान संशोधन के माध्यम से भी मौलिक अधिकारो में परिवर्तन नहीं कर सकती हैं परंतु न्यायपालिका के द्वारा निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद13(2)के अंतर्गत विधि शब्द में केवल सामान्य विधि शामिल  संशोधन संविधान संशोधन विधि नहीं सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन के माध्यम से मौलिक अधिकारों सहित समस्त संविधान में संशोधन कर सकती हैं

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य वाद 1964

इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अपने पूर्व में दिए गए निर्णय को फिर से दोहराया गया। यह निर्धारित किया गया कि मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति संसद में निहित है।

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य बांध 1967

इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अपने पूर्व में दिए गए निर्णय को परिवर्तित कर दिया गया तथा निर्धारित किया गया के अनुच्छेद368 के अंतर्गत संसद को मौलिक अधिकार में संशोधन की शक्ति प्राप्त नहीं है न्यायपालिका के अनुसार अनुच्छेद 368 के अंतर्गत केवल संविधान संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है न की संविधान संशोधन की शक्ति का, न्यायपालिका के अनुसार अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत हर प्रकार की विधि शामिल है सामान्य विधि एवं संविधान संशोधन विधी, इस वाद में न्यायपालिका के द्वारा देश में मौलिक अधिकारों को सर्वोच्च वरीयता प्रदान की गई है

24वां संविधान संशोधन 1971

इस संशोधन के माध्यम से संसद ने गोलकनाथ वाद में दिए गए निर्णय को चुनौती  प्रदान की। संसद को फिर से यह शक्ति प्रदान की गई कि मौलिक अधिकारों सहित समस्त संविधान में संशोधन की शक्ति केवल संसद में निहित है।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद 1973

इस बात में 24 वें संविधान संशोधन को न्यायपालिका में चुनौती प्रदान की गई तथा सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 13 (2) के अंतर्गत विधि शब्द में केवल सामान्य विधि शामिल है ना कि संविधान संशोधन विधि अर्थात न्यायपालिका के द्वारा निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद मौलिक अधिकार में संशोधन कर सकती हैं परंतु न्यायपालिका के अनुसार “संसद की संशोधन शक्ति असीमित नहीं है तथा उसे संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन का अधिकार नहीं है”

42वां संविधान संशोधन 1976

इस संशोधन के माध्यम से संसद के द्वारा अनुच्छेद 368 में 04 व 05 जोड़ा गया एवं यह निर्धारित किया गया कि संसद की संविधान संशोधन की शक्ति आसिमित है एवं न्यायपालिका के द्वारा इसकी समीक्षा नहीं की जा सकती हैं अर्थात इस संशोधन के माध्यम से संसद ने अपनी सर्वोच्चता को स्थापित किया है

मिनरवा मिल्स  बनाम भारत संघ वाद 1980

इस वाद में न्यायपालिका के द्वारा अनुच्छेद 368 में जोड़े गए 04व05 को अवैध घोषित कर दिया तथा यह निर्धारित किया गया कि संसद की सीमित  संशोधन की शक्ति तथा न्यायिक पुनरावलोकन भारतीय संविधान के मूल ढांचे में शामिल हैं

निष्कर्ष

वर्तमान स्थिति यह है कि संविधान मेंं संशोधन की शक्ति संसद में निहित है, परंतु न्यायपालिका के द्वारा समीक्षा की जा सकती है। यदि वह संंशोधन संविधान के मूल ढांचे पर प्रहार करता है तो न्यायपालिका केेेे द्वारा उसे अवैध घोषित कर दिया जाएगा  अर्थात् मौलिक अधिकारों के ऐसे प्रावधान जिसका संबंध मूल ढांचे से है, उसमें परिवर्तन की शक्ति संसद में  निहित नहीं है।

समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18)

 अनुच्छेद 14— विधि के समक्ष समता तथा विधि का समान संरक्षण

अपवाद:- अनुच्छेद 361 के अंतर्गत राष्ट्रपति तथा राज्यपाल को उनके व्यक्तिगत कार्यों से उन्मुक्ति प्रदान की गई हैअनुच्छेद 105 संसदीय विशेषाधिकारअनुच्छेद 194 विधान मंडल के सदस्यों के विशेष अधिकारों को मौलिक अधिकारों पर वरीयता दी गई हैविदेशी राष्ट्राध्यक्ष कूटनीतिज्ञ तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधियों को अनुच्छेद 14 का अपवाद माना गया हैअनुच्छेद 14 भारतीय संविधान के मूल ढांचे में सम्मिलित है

अनुच्छेद 15— धर्म जाति लिंग वंश तथा जन्म स्थान के आधार पर प्रतिषेध का निषेध

अपवाद:- अनुच्छेद 15 (3) राज्य को अधिकार प्रदान किया गया है क्यों महिलाओं तथा बालकों के विकास के लिए विशेष कदम उठा सकेप्रथम संविधान संशोधन 1951 के माध्यम से अनुच्छेद 15 से 4 जोड़ा गया है 15000 के अंतर्गत राज्य कोई अधिकार प्रदान किया गया है कि वह सामाजिक तथा शैक्षणिक आधार पर पिछड़े वर्ग एवं अनुसूचित जाति जनजाति के  कल्याण के लिए विशेष कदम उठा सकता है93वा  संविधान संशोधन 2005 के माध्यम से अनुच्छेद 15 में (5) जोड़ा गयाअनुच्छेद 15 (5) जिसके अंतर्गत राज्य को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह सामाजिक तथा शैक्षणिक आधार पर पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित जाति तथा जनजाति के उत्थान के लिए निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश में आरक्षण प्रदान कर सकता है

अनुच्छेद 16— लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता

अपवाद अनुच्छेद 16  इसके अंतर्गत राज्य को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि सार्वजनिक सेवाओं में सामाजिक तथा शैक्षणिक आधार पर पिछड़े वर्गों तथा अनुसूचित जाति व जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो राज्य उन्हें आरक्षण प्रदान कर सकता है ( सरकारी नौकरियों में आरक्षण इसी अनुच्छेद के अंतर्गत प्रदान किया गया है)मूल संविधान में पेशाब रक्षक परिभाषित नहीं था तथा पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए सर्वप्रथम 1953 में काका कालेकर के नेतृत्व में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गयाइसमें 2399 जातियों को पिछड़े वर्ग की श्रेणी में शामिल किया गया1979 में वी पी मंडल के नेतृत्व में जितने पेशावर आयोग का गठन किया गया इसमें 3742 जातियों को पिछड़े वर्ग की श्रेणी में शामिल किया गया एवं सामाजिक सेवा में 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने की सिफारिश की गई1990 में वीपी सिंह सरकार ईश्वर को कोहरा सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण उपलब्ध कराया गया जिससे न्यायपालिका में इंदिरा साहनी को चुनौती प्रदान की गई।

इंदिरा सहानी बनाम भारत संघ वाद 1992 या मंडल बाद

  1. न्यायपालिका के द्वारा पिछड़े वर्ग को दिए गए 27% आरक्षण को उचित माना गया।
  2. परंतु न्यायपालिका के द्वारा यह निर्धारित किया गया कि आरक्षण की अधिकतम मात्रा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  3. न्यायपालिका के अनुसार पिछड़े वर्गों में क्रीमी लेयर वर्ग को आरक्षण की सुविधा उपलब्ध नहीं होगी।

अनुच्छेद 17— अस्पृश्यता की समाप्ति

अस्पृश्यता की पूर्ण समाप्ति के लिए संसद के द्वारा 1955 में अस्पृश्यता निवारण अधिनियम पारित किया गया। जिसे 1976 में परिवर्तित कर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम का रूप प्रदान किया गया। अनुच्छेद 17 अपने आप में  निरपेक्ष मौलिक अधिकार है, जिसका कोई अपवाद नहीं है।

अनुच्छेद 18— उपाधियों का निषेध

सेना तथा शिक्षा को छोड़कर अन्य किसी भी क्षेत्र में उपाधि प्रदान नहीं की जाएगी तथा विदेश से कोई भी सम्मान पुरस्कार आदि प्राप्त करने से पूर्व राष्ट्रपति की सहमति अनिवार्य है।

स्वतंत्रता का अधिकार  अनुच्छेद 19 से 22

  • अनुच्छेद 19 वाक् स्वतंत्रता का संरक्षण

अनुच्छेद 19 (1) के अंतर्गत प्रारंभ में संविधान के द्वारा भारतीय नागरिकों को कुल 7 स्वतंत्रता प्रदान की गई थी परंतु 44 संविधान संशोधन 1978 के माध्यम से संपत्ति की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया गया तथा वर्तमान में भारतीय नागरिकों के पास को 6 स्वतंत्रताए विद्यमान हैं

  1. विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
  2. शांतिपूर्वक बिना हथियारों के सम्मेलन के स्वतंत्रता
  3. समूह संघ तथा समिति
  4. भर्मण की स्वतंत्रता
  5. निवास की स्वतंत्रता
  6. रोजगार या व्यवसाय  की स्वतंत्रता

न्यायपालिका के द्वारा वादों के माध्यम से अनुच्छेद के अंतर्गत विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का  विस्तार किया गया है तथा उसके अंतर्गत 

  1. प्रेस की स्वतंत्रता
  2. सूचना का अधिकार
  3. नोटा का प्रयोग
  4. प्रदर्शन तथा धरना देने का अधिकार
  5. चुप रहने का अधिकार
  6. झंडा फहराने का अधिकार

आदि को शामिल किया गया है परंतु उपयुक्त शब्द स्वतंत्रता पर अनुच्छेद 19 (2) के अंतर्गत देश की एकता और अखंडता, राज्य के सुरक्षा, मानहानि, सदाचार , न्यायालय अपमान, विदेशी राष्ट्रों साथ मैत्रीपूर्ण संबंध आदि के आधार पर युक्तियुक्त प्रतिबंधों की व्यवस्था की गई है अर्थात उपर्युक्त सभी स्वतंत्रताए भारतीय नागरिकों के पास पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है इसलिए एम.सी. छावला का मानना है कि “भारतीय संविधान एक हाथ से मौलिक अधिकार प्रदान करता है तो दूसरे हाथ प्रतिबंधों के माध्यम से उन्हें वापस छीन लेता है”

  • अनुच्छेद 20 अपराधों की दोष सिद्धि में संरक्षण

इसके अंतर्गत नागरिकों को तीन प्रकार से अपराधियों की दोष सिद्धि से संरक्षण प्रदान किया गया है

  1. भूतलक्षी विधान/ कर्योंतर विधान:- किसी व्यक्ति को तब तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसके अपराध के समय विद्यमान किसी भी विधि का उल्लंघन न किया गया हो उसे उतनी ही सजा प्रदान की जाएगी जो कि उसके अपराध के समय तत्कालीन कानून में विद्यमान हो
  2. दोहरा दंड से संरक्षण:- इसके अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि एक व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक ही बार सजा प्रदान की जाएगी
  3. आत्म अभिशासन्न से संरक्षण:- किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने अथवा किसी भी अपराध को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा

अनुच्छेद 20 को आपातकाल के दौरान निलंबित नहीं किया जा सकता है 

  • अनुच्छेद 21 प्राण व देहिक स्वतंत्रता का संरक्षण

भारतीय संविधान के द्वारा सभी नागरिकों के जीवन का संरक्षण किया गया है तथा यह निर्धारित किया गया है कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना किसी व्यक्ति को उसके जीवन की स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगाडॉ भीमराव अंबेडकर ने अनुच्छेद 31 के महत्व के कारण इसे संविधान का मेरुदंड तथा मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी हैप्रारंभ में अनुच्छेद 21 नागरिकों को कार्यपालिका ए कार्यवाही के विरुद्ध प्रदान किया गया था परंतु 1978 के मेनका गांधी बनाम भारत संघ बाद में इसे कार्यपालिका व्यवस्थापिका दोनों के विरुद्ध प्रदान किया गया एवं न्यायपालिका के द्वारा अनुच्छेद 21 का विस्तार करते हुए अधिकार को शामिल किया गया क्योंकि मनुष्य के गरिमा पूर्ण ढंग से जीवन जीने के लिए आवश्यक हैन्यायपालिका ने विभिन्न वादों के माध्यम से अनुच्छेद 21 का विस्तार किया है

  1. मेनका गांधी बनाम भारत संघ वाद :-विदेश यात्रा का अधिकार
  2. परमानंद कटारा बनाम भारत संघ बाद निशुल्क चिकित्सा सहायता का अधिकार
  3. एमसी मेहता बनाम भारत संघ वाद स्वच्छता पर्यावरण का अधिकार
  4. मुरली देवड़ा बनावा संघवाद सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान का निषेध
  5. विशाखा बनाम राजस्थान राज्य बाद कार्यस्थल पर महिलाओं के लैंगिक उत्पीड़न का निषेध
  6. सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य वाद जल या पानी का अधिकार
  7. मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य बाद निशुल्क शिक्षा का अधिकार

86 वा संविधान संशोधन 2002 के माध्यम से शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21A के अंतर्गत मौलिक अधिकार के रूप में सम्मिलित किया गया है इसे लागू कराने के लिए संसद के द्वारा 2009 में RTE एक्ट का निर्माण किया गया तथा 1 अप्रैल 2010 से पूरे भारत में लागू किया गया परंतु राजस्थान में 1 अप्रैल 2011 में लागू किया गया। 44वां संविधान संशोधन 1978 से प्रावधान किया गया है कि अनुच्छेद 20 व 21 को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।

अनुच्छेद 22— गिरफ्तारी से संरक्षण

  1. सामान्य गिरफ्तारी इसके अंतर्गत अपराध के बाद की गिरफ्तारी शामिल है तथा भारतीय संविधान के भारतीय संविधान के अनुसार गिरफ्तार होने के बावजूद नागरिकों को कारण जानने का 24 घंटे के भीतर न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने का अर्थ अर्थ न्यायालय में सुनवाई कर अपने बचाव के लिए वकील के प्रयोग का अधिकार प्रदान किया क्या है परंतु उपयुक्त अधिकार शत्रु देश के नागरिकों को तथा निवारक निरोध के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्तियों को उपलब्ध नहीं है
  2. निवारक निरोध के अंतर्गत गिरफ्तारी इसके अंतर्गत व्यक्ति को बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के अपराध के पूर्व ही गिरफ्तार कर लिया जाता है ताकि व्यक्ति अपराध को अंजाम न दे सके इसका प्रावधान देश की एकता अखंडता राज्य की सुरक्षा व्यवस्था एवं आतंकवादी गतिविधियों से सुरक्षा के लिए किया गया है इसके अंतर्गत व्यक्ति को 3 माह तक नजरबंद रखा जा सकता है एवं न्यायालय द्वारा गठित सलाहकार बोर्ड की सिफारिश की जा सकती हैं निवारक निरोध समवर्ती सूची का विषय है इस पर कानून का अधिकार केंद्र तथा राज्य दोनों के पास है परंतु यदि किसी भी कानून को लेकर केंद्र तथा राज्यों के बीच मध्य मतभेद पैदा होता है तो केंद्र द्वारा बनाया गया कानून ही मान्य होगा
  • अनुच्छेद 23 व 24 शोषण के विरुद्ध अधिकार

अनुच्छेद 23 मानव का दुर्ग व्यापार तथा बल आश्रम पर प्रतिबंधअनुच्छेद 24 बाल श्रम पर प्रतिबंध

  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 25 से 28

अनुच्छेद 25 अंतःकरण के स्वतंत्रता किसी भी धर्म को मानने आचरण करने तथा प्रचार की स्वतंत्रता परंतु सार्वजनिक व्यवस्था सदाचार तथा नैतिकता तथा स्वास्थ्य के आधार पर उपरोक्त सभी स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया गया हैअनुच्छेद 26 धार्मिक कार्यों की प्रबंधन की स्वतंत्रताअनुच्छेद 27 धार्मिक करो की अदायगी से छूटअनुच्छेद 28 राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध प्रस्तावना में महत्व पंथनिरपेक्षता की अभिव्यक्ति धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में होती हैं

  • संस्कृति तथा शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 29 व 30

अनुच्छेद 29 अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षणअनुच्छेद 30 शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा प्रशासन का अधिकार

  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार अनुच्छेद 32

भारतीय संविधान निर्माताओं के द्वारा न केवल नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं अपितु उन्हें लागू कराने के लिए व्यवस्था की गई है आधारित मौलिक अधिकारों के संरक्षण को अनुच्छेद 32 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार बना दिया गया है यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार है इसके द्वारा अन्य सभी मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की जाती हैं डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 के मेहता के कारण इसे संविधान की आत्मा ह्रदय में धान की दीवार दीवार की संज्ञा दी हैं सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश गजेंद्रगड़कर अनुच्छेद 32 को सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार की आधारशिला की संज्ञा दी है प्राप्त कर सकता है एवं मौलिक अधिकारों के संरक्षण के अंतर्गत निम्न रिट जारी की जाती है

  1. बंदी प्रत्यक्षीकरण:- यह रिट उस व्यक्ति के संबंध में न्यायालय के द्वारा जारी किया गया आदेश है जिसे दूसरे के हिरासत में रखा गया हो अथवा उसे बंदी बनाया गया है व्यक्तिगत स्वतंत्रता की दृष्टि से यह सबसे महत्वपूर्ण रिट हैं जिसका अर्थ है कि बंदी बनाए गए व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष उपस्थित किया जाए इसके माध्यम से न्यायालय गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की गिरफ्तारी के औचित्य का परीक्षण करती हैं यदि गलत तरीके से गिरफ्तारी की गई है तो न्यायालय के द्वारा उस गिरफ्तारी को अवैध घोषित कर दिया जाता है
  2. परमादेश :-इस रिट का अभिप्राय है कि हम आदेश देते हैं इसका प्रयोग न्यायालय के द्वारा किसी भी सार्वजनिक पदाधिकारी निगम तथा सरकार को सार्वजनिक दायित्व को लेकर आदेश के रूप में दिया जाता है
  3. प्रतिषेध :-यह न्याय की रेट है जिसका प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय घायलों के द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालय को किसी भी ऐसे मामले पर विचार विमर्श करने से रोकने के लिए जारी किया जाता है जो कि उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं
  4. उत्प्रेषण :-यह भी एक न्यायिक रेट है इसका प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों में चल रहे किस में मामले को अपने पास मंगवाने के लिए किया जाता है एवं न्यायालय इसके अंतर्गत अधीनस्थ न्यायालयों से सूचना प्राप्त कर सकता है प्रतिषेध तथा उत्प्रेषण दोनों न्यायिक रेट है जिसका प्रयोग उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा केवल अपने अधीनस्थ न्यायालयों के लिए जारी किया जाता है अर्थात इसका प्रयोग न्यायपालिका के द्वारा विधायिका कार्यपालिका अथर प्रशासनिक अधिकारियों के के विरुद्ध नहीं किया जा सकता है प्रतिषेध कार्यवाही के दौरान कार्यवाही को रोकने के लिए जारी की जाती है जबकि उत्प्रेषण का प्रयोग कार्यवाही के निर्णय को रद्द करने के लिए किया जाता है
  5. अधिकार पृच्छा :- जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है जिसे कोई वैधानिक आधार नहीं है तो न्यायपालिका रिट के माध्यम से उसके पद का आधार पूछती हैं इस रिट का प्रयोग किसी भी अन्य व्यक्ति के द्वारा किया जा सकता है

रिट जारी करने के क्षेत्र में उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में व्यापक होता है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा केवल मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में ही रिट जारी किया जा सकता है जबकि उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के साथ-साथ अन्य मामलों में भी रिट जारी करने का अधिकार प्राप्त है बंधु मौलिक अधिकारों का संरक्षण सर्वोच्च न्यायालय को माना जाता है अनुच्छेद 32 के अंतर्गत संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय का यह कर्तव्य निर्धारित किया गया है कि वह मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर जारी करें जबकि उच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकारों को लेकर जारी करने से इनकार किया जा सकता है

  • मौलिक अधिकारों के अपवाद

अनुच्छेद 35 के अंतर्गत संसद को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह सशस्त्र बलों अर्धसैनिक बलों पुलिस खुफिया एजेंसियों आदि के अधिकारों पर उचित प्रतिबंध लगा सकते हैंअनुच्छेद 34 के अंतर्गत संसद को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि भारत के किसी भी राज्य क्षेत्र में सैन्य विधि लागू होने पर संसद सेना द्वारा किए गए कार्यों को मान्यता प्रदान कर सकती है तथा इस दौरान संसद द्वारा बनाए गए कानून को न्यायपालिका में चुनौती नहीं दी जा सकेगीअनुच्छेद 35 के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि मौलिक अधिकारों को लेकर किसी भी कानून का निर्माण केवल संसद के द्वारा किया जाएगा अर्थ अर्थ राज्य विधानमंडल ओ व अन्य किसी भी निकाल को मौलिक अधिकारों को लेकर कानून निर्माण का अधिकार प्राप्त नहीं है

  • मौलिक अधिकारों का निलंबन आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों को निलंबित किस निलंबित करने की शक्ति राष्ट्रपति में नहीं था यदि राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा युद्ध अथवा बाय आक्रमण के आधार पर की गई है तो अनुच्छेद 358 के अंतर्गत अनुच्छेद 19 की स्वतंत्रता स्वत: निलंबित हो जाते हैं तथा अन्य मौलिक अधिकारों को निलंबित करने की शक्ति अनुच्छेद 359 के अंतर्गत राष्ट्रपति के पास आ जाती हैं परंतु अनुच्छेद 20 व 21 को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है
  • मौलिक अधिकारों में संशोधन मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति अनुच्छेद 368 के अंतर्गत केवल संसद में नहीं था परंतु 1967 के गोरखनाथ बाद में संसद को मौलिक अधिकार में संशोधन करने से रोक दिया गया तथा मौलिक अधिकारों को सर्वोच्च वरीयता प्रदान की गई है परंतु संसद के द्वारा 24 वें संविधान संशोधन 1971 के माध्यम से गोरखनाथ बाद में दिए गए निर्णय को परिवर्तित कर दिया गया तथा फिर से मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति प्राप्त कर ली गई 1973 के केसवानंद भारती वाद में ढांचे के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया एवं यह निर्धारित किया गया संसद मौलिक अधिकार में संशोधन कर सकती हैं परंतु मूल्य में संशोधन का अधिकार संसद में निहित नहीं है
  • मौलिक अधिकारों प्रवर्तन मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के शक्ति उच्च न्यायालय में सर्वोच्च न्यायालय के पास है

मौलिक अधिकारों के दोष

  1. मौलिक अधिकारों के अंतर्गत अनेक आवश्यक अधिकारों को छोड़ दिया गया है जैसे काम का अधिकार सामाजिक सुरक्षा का अधिकार आदि
  2. मौलिक अधिकारों की भाषा जटिल है
  3. मौलिक अधिकारों के ऊपर अत्यधिक प्रतिबंधों की व्यवस्था की गई है
  4. मौलिक अधिकारों में स्थायित्व का अभाव पाया जाता है
  5. मौलिक अधिकारों का न्यायिक उपचार अत्यधिक लंबा तथा खर्चीला है
  • खंडन
  1. मौलिक अधिकारों में अनेक अधिकार दिए गए हैं जैसे न्यूनतम मजदूरी अधिनियम पारित किया गया है बाल श्रम से संबंधित और अनेक अधिकार दिए गए हैं
  2. मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध ना लगाया जाए प्रत्येक व्यक्ति मनमाने तरीके से इन मौलिक अधिकारों का प्रयोग करेगा वह स्वच्छंद हो जाएगा
  3. मौलिक अधिकारों का हनन होने पर हम न्यायालय जा सकते हैं जहां गरीबों व निशक्त जनों के लिए न्याय की व्यवस्था की गई हैं

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