भारतीय संविधान का विकास (Development of Indian Constitution)
संविधान
किसी भी देश का संविधान उस देश की राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था का निर्धारण करता है जिससे उस देश की जनता शासित होती है अर्थात् संविधान किसी देश की राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था के लिए प्राधिकार का ऐसा विलेख है जिसमें कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका एवं प्रशासनिक अंगों के गठन, उनकी कार्य प्रक्रिया एवं उद्देश्यों का संहिताकरण होता है, जो उनकी शक्तियों की व्याख्या करता है, उनके दायित्वों का सीमांकन करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधों का विनियमन करता है। संविधान किसी भी देश की आधार विधि होता है जो उसकी राज्यव्यवस्था के मूल सिद्धांतों को विहित करता है जिसके आधार पर राज्य की अन्य विधियों एवं नीति-नियमों को परखा जाता है।
भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (संवैधानिक विकास)
वर्तमान भारतीय राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था लोकतंत्र, विधि का शासन, कल्याणकारी राज्य पर आधारित है एवं भारतीयों नागरिकों के सापेक्ष न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के मूल्योंको धारण किए हुए हैं। इस व्यवस्था की संरचना का विकास क्रम ब्रिटिश शासन काल में आरंभ हुआ। 1773 के रेग्यूलेटिंग अधिनियम से विधि के शासन एवं लोकतंत्र पर आधारित संरचना के विकास का बीजारोपण हुआ।उल्लेखनीय है कि भारत ब्रिटेन का एक उपनिवेश था और ब्रिटेन में संसदीय लोकतंत्र था। अतः ब्रिटेन ने भारत में संसदीय लोकतंत्र की संरचना की विकास प्रक्रिया आरंभ की।
ब्रिटिश शासन काल में इस शासन तंत्र की विकसित होने के दो दौर हैं—
1773 से 1858 तक :- इस दौर में लोकतंत्र के अनुरूप राजनैतिक प्रशासनिक संरचना का विकास हुआ जिसमें भारतीयों का कोई योगदान नहीं था।
1861 से 1946 तक :- इसमें इस राजनैतिक प्रशासनिक संरचना का भारतीय करण का दौर रहा जिसमें प्रभावशाली राष्ट्रीय आंदोलन के दबाव में और ब्रिटिशहितों का अधिकतम संरक्षण करते हुए भारतीयों को स्थान देने के लिए सुधारात्मक प्रयास किए गए जिससे संसदीय सरकार का स्वरूप विकसित हुआ और संघात्मक व्यवस्था के लक्षण प्राप्त हुए।
1765 के बक्सर युद्ध के बाद ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारत में उच्च राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्था कायम की जिससे कंपनी के कर्मचारियों को निःशुल्क व्यक्तिगत व्यापार करने का अधिकार मिल गया। इस अधिकार को वे ऊँचे कमीशन पर भारतीयों व्यापारियों को देते थे।इस प्रकार कंपनी के कर्मचारियों के भ्रष्टाचारी व पक्षपाती होने के कारण कंपनी का प्रशासन तंत्र कमजोर हो गया जिससे कंपनी के कुल व्यापार में कमी आने एवं भारत के निरन्तर युद्धों में उलझने से कंपनी की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई।अतः कंपनी ने अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए ब्रिटिश शासन ने इस शर्त पर वित्तीय सहायता प्राप्त की कि कंपनी द्वारा स्थापित शासन का केन्द्र बिन्दु ब्रिटिश क्राउन होगा।परिणाम स्वरूप 1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित हुआ।
Regulating Act, 1773
यह अधिनियम अवरोध एवं संतुलन के नियम पर आधारित था जिसका उद्देश्य बंगाल में विधि के शासन पर आधारित स्वच्छ प्रशासन स्थापित करना था।
- कंपनी के Board of Directors की संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गयी तथा कार्यकाल 4 वर्ष सुनिश्चित कर दिया गया। प्रतिवर्ष 1/4 सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था की गयी।
- कंपनी के ऐसे शेयर धारक जो पिछले 1 वर्ष से 1000 पौंड के शेयर धारक है, वही Board of Directors के मतदान में भाग ले सकते हैं।
- बंगाल के गवर्नर को बंगाल का गवर्नर जनरल बना दिया गया जिसकी नियुक्ति Board of Directors द्वारा किया जाना किन्तु पदच्युति Board of Directors की सिफारिश पर क्राउन द्वारा होना और कार्यकाल 5 वर्ष सुनिश्चित करना।
- गवर्नर जनरल के लिए चार सदस्यीय एक कार्यकारिणी (Council) का गठन किया गया जिसके बहुमत के निर्णय को मानना गवर्नर जनरल के लिए बाध्य किया गया तथा उसे केवल निर्णायक मत देने का अधिकार दिया गया।
- कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय स्थापित करना व इस न्यायालय में कार्यकारिणी द्वारा लिए गए निर्णयों को पंजीकृत कराना तभी उसकी विधिमान्यता होगी।
- बंगाल के द्वैध शासन को समाप्त कर सीधे कंपनी के अधीन कर दिया गया ताकि शासन की जवाबदेही सुनिश्चित हो।
- कंपनी के कर्मचारियों को तोहफे इत्यादि लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
1781 का संशोधन अधिनियम
- कार्यकारिणी को अपने द्वारा निर्मित नियमों-अधिनियमोंआदि को न्यायालय में पंजीकृत कराना समाप्त कर दिया।इस प्रकार प्रशासन तंत्र पर न्यायिक नियंत्रण को समाप्त कर दिया।
- कंपनी के कर्मचारियों एवं यूरोपीय लोगों पर ब्रिटेन के कानून के अनुसार न्याय देना जबकि भारतीयों के मामले भारतीय रीति-रिवाजों के अनुसार।
Pits India Act, 1784
1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने एवं भारत में कंपनी के शासन को ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में लाने के उद्देश्य से 1784 का पिट्स इंण्डिया एक्ट एक सुधारात्मक उपाय के रूप में पारित किया गया। इसके मुख्य प्रावधान थे:-
- 6 सदस्यीय Board of Control का गठन करना जो ब्रिटिश सरकार की तरफ से भारत में कंपनी के शासन को विनियमित करेगा।
- यह Board of Control शासन के मामले में सीधे गवर्नर जनरल और प्रान्तीय गवर्नर को आदेश-निर्देश दे सकता था और कुछ गोपनीय मामलों में गवर्नर जनरल और गवर्नर द्वारा सीधे Board of Control को रिपोटिंग कर और निर्देश प्राप्त किए जा सकते थे।
- कंपनी के व्यापारिक व वाणिज्यिक कार्यों को एक-दूसरे से अलग कर दिया। इस प्रकार यह Board of Control 1857 तक ब्रिटिश सरकार की ओर से कंपनी के Board of Directors के माध्यम से शासन को विनियमित करता था। 1858 में इसे समाप्त कर दिया गया।इसके स्थान पर ब्रिटेन में भारत परिषद् का गठन किया गया।
1786 का संशोधन अधिनियम
यह संशोधन अधिनियम कार्नवालिस को बंगाल के गवर्नर जनरल के पद धारण के रूप में विशेष शक्ति प्रदान करने और कार्यकारिणी के निर्णय को वीटो करके अपने स्वयं के निर्णय को लागू करने का अधिकार देने के लिए पारित किया गया।कार्नवालिस ने ऐसे सुधारात्मक प्रयास किए जिससे न केवल कंपनी शासन को मजबूती प्रदान हुई बल्कि भारत में ब्रिटिश शासन के प्रभावशीलता के द्वार खोल दिए।
- स्थायी बंदोबस्त प्रणाली देकर कंपनी की आमदनी को सुनिश्चित कर दिया तो दूसरी ओर ब्रिटिश शासन के लिए जमींदार रूप में समर्थक वर्ग प्राप्त हुआ।
- सिविल सेवा का पुर्नगठन इस प्रकार किया कि कार्नवालिस को भारत में सिविल सेवा का जनक माना जाता है।इसकी प्रभावशीलता के लिए कार्नवालिस संहिता प्रतिपादित की जिसमें covenanted civil service को पूर्णतः ब्रिटेन व यूरोपीय के लिए आरक्षित कर दिया जिस से कंपनी को यूरोप में समर्थक वर्ग प्राप्त हुआ और भारतीयों के लिए द्वार हमेशा बंद कर दिया।तर्क दिया कि विधि के शासन के अनुसार शासन की स्थापना एवं संचालन की योग्यतों में योग्यता नहीं है ।यह योग्यता केवल ब्रिटेन के लोगों में है।
- न्यायिक व्यवस्था में एक पदसोपानी क्रम में दीवानी एवं फौजदारी न्यायालय स्थापित किए।
- पुलिस व्यवस्था दी तथा दरोगा के नियंत्रण में थाना का गठन।
चार्टर एक्ट, 1793
- वीटो शक्ति बंगाल के गवर्नर जनरल के लिए स्थायी कर दी गयी।
- 20 वर्ष के लिए पुनः कंपनी के एकाधिकार को बहाल कर दिया गया।
चार्टर एक्ट, 1813
- केवल चाय कीमत व चीन के साथ व्यापार को छोड़कर कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया।
- भारत में शिक्षा पर 1 लाख रू वार्षिक व्यय करने का प्रावधान किया गया।
चार्टर एक्ट, 1833
- बंगाल के गवर्नर जनरल के स्थान पर भारत का गवर्नर जनरल पदस्थापित किया।
- भारत के गवर्नर जनरल को ब्रिटिश संसदीय अधिनियमों के दायरे में पूरे भारत में कानून बनाने का अधिकार दे दिया और उसके कानून पूरे भारत में लागू होना।
- कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल कार्यकारिणी की बैठक में विधि सदस्य के रूप में विधि सदस्य को नियुक्त करने का प्रावधान किया गया जिसे कार्यकारिणी की सभी बैठकों में शामिल होने का अधिकार नहीं था।लेकिन प्रथम सदस्य मैकाले को उसकी योग्यता को देखते हुए सभी बैठकों में बुलाया जाता था।
- प्रान्तीय गवर्नरों को विधि बनाने की शक्ति समाप्त कर दी गयी और उन्हें गवर्नर जनरल द्वारा प्रदत्त शक्ति व अधिकारों द्वारा शासन का संचालन करना था। सभी क्षेत्र के राजस्व पर सीधे गवर्नर जनरल का नियंत्रण और प्रान्तों को केन्द्र द्वारा वित्त उपलब्ध कराना।
- उल्लेखनीय है कि गवर्नर जनरल के पास वीटो शक्ति कार्यकारिणी पर बनी रही। इस प्रकार गवर्नर जनरल संसद अधिनियम के अधीन भारत में सर्वोच्च सत्ताधारी पद हो गया।
- कंपनी की नौकरियों में जाति, धर्म, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर भेद भाव वर्जित किया गया। (व्यवहार में लागू नहीं हो सका।)
- भारत में विधि के शासन को प्रभावशील बनाने के लिए विधि के संहिताकरण के लिए विधि आयोग का गठन किया गया। ( मैकाले की अध्यक्षता में विधि आयोग का गठन,जिसकी सिफारिशों के लिए 1853 में विधि आयोग का पुनःगठन किया गया और इन सिफारिशों के आधार पर 1861 मेंI PCऔर 1866 में CrPC का गठन किया गया।)
- कंपनी को व्यापारिक निगम से प्रशासनिक निगम में परिवर्तित कर दिया और भारत के शासन को 20 वर्ष के लिए प्रन्यास(ट्रस्ट) के रूप में सौंप दिया।
चार्टर एक्ट, 1853
- गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में अतिरिक्त सदस्य ( अधिकतम 6, न्यूनतम 4) मनोनीत करने का अधिकार गवर्नर जनरल को दे दिया गया जो उसी बैठक में भाग लेंगे जब भारत में कोई विधि बनाने के लिए बुलाई जाए। गवर्नर जनरल की वीटो शक्ति बनी रही। इस प्रकार संसदीय सरकार के स्वरूप का बीजारोपण हुआ।
- कंपनी की नौकरियों में योग्यता आधारित भर्ती का प्रावधान किया गया।
- भारत के शासन को अनिश्चित समय के लिए कंपनी को प्रन्यास (Trust) के रूप में सौंप दिया।
भारत परिषद अधिनियम, 1858 (Indian Council Act, 1858)
- भारत के शासन को सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दिया गया।
- Board of Control को समाप्त कर भारत राज्य परिषद् (15+1) का गठन, जिसके अध्यक्ष को भारत मंत्री या भारत सचिव कहा जाता था। यह भारतीय शासन से संबंधित प्रत्येक मामले में ब्रिटिश संसद के प्रति जवाबदेह था।
- भारत में गवर्नर जनरल को वायसराय की पदवी दी गयी जिसका तात्पर्य है ‘सम्राट का प्रतिनिधि’।
- भारत के शासन के संदर्भ और कोई परिवर्तन नहीं किया गया। वायसराय अपनी कार्यकारिणी सहित ब्रिटेन में स्थित भारत मंत्री के प्रति जवाबदेह था।
उल्लेखनीय है कि महारानी विक्टोरिया ने 1 नवम्बर 1858 को यह उद्घोषणा की कि –
- भारत में ब्रिटिश शासित क्षेत्रों की जनता उनकी उसी तरह प्रजा है जैसे ब्रिटेन की जनता प्रजा है।
- भारत में अब और राज्य का विस्तार नहीं किया जाएगा।
- देशी रियासतों के साथ कंपनी द्वारा जो भी संधि-समझौते किए गए हैं उनकी विधिमान्यता होगी।
भारत परिषद अधिनियम,1861 (Indian Council Act, 1861)
- वायसराय की कार्यकारिणी में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी, न्यूनतम 6 और अधिकतम 12। इन सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार वायसराय को दिया गया।
- इन अतिरिक्त सदस्यों के कम से कम 50 प्रतिशत भारतीयों से मनोनीत करना।
- ये सभी सदस्य वायसराय द्वारा प्रस्तुत सभी विषयों पर विचार-विमर्श करके अपनी राय प्रकट कर सकते थे। ये किसी प्रकार को कोई प्रश्न नहीं कर सकते थे और न ही कोई प्रस्ताव पारित कर सकते थे।
उल्लेखनीय है कि 1861 के इस भारतीय परिषद अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार वायसराय भारतीयों से केवल चाटुकार भारतीयों का मनोनयन करते थे परंतु इसका परोक्ष प्रभाव यह हुआ कि भारतीयों को राजनैतिक स्वाद मिला और इस प्रकार उन्होंने वायसराय की इस कार्यकारिणी में निर्वाचन के आधार पर अधिक संख्या में प्रतिनिधित्व देने और उन्हें और अधिकार देने की संगठित माध्यम से मांग रखी जिसकी महत्वपूर्ण प्रतिभूति 1876 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी औरआनन्दमोहन बोस द्वारा गठित इण्डियन एसोसिएशन के रूप में होती है जो कालान्तर 1885 में मद्रास की मद्रास प्रेसीडेन्सी एसोसिएशन, मुंबई की मुंबई प्रेसीडेन्सी एसोसिएशन तथा पूना सार्वजनिक सभा इत्यादि केसाथ मिलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में स्थापना की गई जिसमें ब्रिटिश अधिकारी ए.ओ.ह्यूम का भी सहयोग लिया गया।उल्लेखनीय है कि 1885 में गठित इण्डियन नेशनल कांग्रेस भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का एक सशक्त मंच साबित हुई।भारतीय राष्ट्रीय आंदोल न की प्रभावशीलता को देखते हुए दवाब स्वरूप 1892 में सुधारात्मक रूप में भारतीय परिषद अधिनियम पारित किया।
भारत परिषद अधिनियम, 1892 (Indian Council Act, 1892)
- वायसराय की कार्यकारिणी में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी।
- अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को स्वीकार किया गया।
- शासन-प्रशासन संबंधित प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।
निश्चित रूप से यह एक प्रगतिशील कदम था किन्तु समकालीन राष्ट्रीय आंदोलन की अपेक्षाओं के अनुरूप यह प्रयास बहुत ही मामूली था क्योंकि:-
- वित्त से संबंधित प्रश्नन हीं पूछ सकते थे।
- पूरक प्रश्न नहीं कर पाते थे।
इस प्रकार यह असंतोष का कारण बना जिसके कारण राष्ट्रवादी आंदोलन का उद्भव हुआ। 1905 में बंगाल विभाजन के पश्चात् आंदोलन की दिशा सरकार में राजनैतिक भागीदारी के स्थान पर स्वशासन कर दी गई।अतः उग्रराष्ट्रीय आंदोलन को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने पुनः सुधारात्मक प्रयास के रूप में भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 अर्थात मिन्टो मोरले रिफॅार्म 1909 पारित किया।
मिन्टो मोरले रिफॅार्म 1909 (Minto-Morley Reforms, 1909)
- वायसराय की कार्यकारिणी में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी।
- प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को स्वीकार किया गया।
- वित्त पर प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।
- वित्त को छोड़कर शेष मामलों में पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।
किन्तु समकालीन राष्ट्रीय चेतना के सापेक्ष यह सुधार अलंकारिक था क्योंकि:-
- वित्त पर पूरक पूछने का अधिकार नही दिया।
- निर्वाचन में वयस्क मताधिकार को स्थान नहीं दिया।
- बहस करने का अधिकार नहीं दिया।
- प्रस्ताव पारित करने का अधिकार नहीं दिया।
इस प्रकार असंतोष पैदा हुआ, आक्रोश पैदा हुआ औरअब भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में क्रांतिकारी आंदोलन का प्रादुर्भाव हुआ।आंदोलन की तीव्रता एवं प्रभावशीलता को देखते हुए 1919 का भारत शासन अधिनियम के रूप में पुनःसुधारात्मक कदम उठाए जिसे Montegue-Chemsford Reforms, 1919 के नाम से भी जाना जाताहै।
Montegue-Chemsford Reforms, 1919
- शासन संबंधी विषय-वस्तु को दो भागों में बांटा गया है:-
- केन्द्रीय सूची जिसमें उल्लेखित विषयों पर केन्द्र को अधिकारिता दी गई।
- प्रान्तीय सूची जिसमें उल्लेखित विषयों पर प्रान्तों को अधिकारिता दी गई।
- केन्द्रीय सूची पर अधिकारिता केन्द्र सरकार की थी और केन्द्र सरकार के मामले में यह प्रावधान किया गया कि
- वायसराय की कार्यकारिणी में अतिरिक्त सदस्यों की व्यवस्था को समाप्त कर दिया तथा इसके स्थान पर द्विसदनीय विधानमण्डल की स्थापना की गई।
- इस विधानमण्डल को वित्त सहित सभी मामलों पर पूरक प्रश्न पूछने को अधिकार दे दिया।
- बहस कर सकते थे, प्रस्ताव पारित कर सकते थे और केन्द्रीय सूची की विषयों पर विधि बना सकते थे। लेकिन वायसराय के पास वीटो पावर बनी रही। वह किसी भी विधेयक को अस्वीकृत कर सकता था और सदन के सत्र में होने के बाद भी अध्यादेश जारी कर सकता था और कभी भी किसी भी आधार पर विधानमंडल का विघटन कर सकता था।
- प्रान्तीय शासन के मामले प्रान्तीय विषयों को पुनः दो भागों में वगीकृत किया गया – आरक्षित विषय और हस्तान्तरित विषय।
- आरक्षित विषयों पर प्रान्तीय गवर्नर को अपनी कार्यकारिणी की मदद से शासन का संचालन करना था जबकि हस्तान्तरित विषयों में निर्वाचित मंत्रीमण्डल की सहायता से। इस व्यवस्था का प्रान्तों में द्वैध शासन कहा गया।
- प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गई। प्रान्तीय शासन में भी प्रान्तीय गवर्नर किसी विधेयक को अस्वीकृत कर सकता था, प्रान्तीय विधानमण्डल का विघटन व सदन के सत्र में होने के बाद भी अध्यादेश जारी कर सकता था।
- इस अधिनियम में अखिल भारतीय सेवाओं का पहली बार प्रावधान किया गया।
इस समय भारत में राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी जी दूरदृष्टा, अंतर्दृष्टा के रूप में एक ऐसे वयंिक्तत्व उभर कर आए जिन्हें दक्षिणी अफ्रीका में साम्राज्यवाद के रूप में अहिंसक सफल जन-आंदोलन का अनुभव था। गांधीजी ने 1919 में खिलाफत आंदोलन को बहुत ही समझदारी के साथ असहयोग आंदोलन में परिवर्तित करके ब्रिटिश राज्य के सापेक्ष पहला जन आंदोलन खड़ा किया। 1922 में गांधीजी ने नियति को स्पष्ट करते हुए कहा कि भारतीयों का संविधान, भारतीयों द्वारा बनाया जाना चाहिए। इसलिए सर्वप्रथम संविधान की मांग गांधीजी ने की थी। उल्लेखनीय है कि 1919 के अधिनियम के क्रियान्वयन की समीक्षा के लिए ‘साइमन कमीशन’का गठन किया गया जिसमें भारतीयों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया जिसकी गंभीर प्रतिक्रिया हुई और इसी प्रतिक्रिया में लाला लाजपतराय शहीद हो गए।
साइमन कमीशन ने यह सिफारिश की कि
- केन्द्र में अभी उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना अभी ठीक नहीं है।
- राज्यों में द्वैध शासन को समाप्त करके उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाए।
- ब्रिटेन में गोलमेज सम्मेलन आयोजित किए जाए जिसमें भारतीयों की भी भागीदारी हो ताकि संवैधानिक सुधार की दिशा तय हो।
अतः ब्रिटिश सरकार की चुनौती को स्वीकार करते हुए 1928 में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने समिति का गठन किया जिसे भारतीय संविधान के लिए रूपरेखा देना था। इसे ‘नेहरू रिपोर्ट’के नाम से जाना जाता है। मोहम्मद अली जिन्ना ने भी 14 सूत्री कार्यक्रम दिया।
गांधीजी ने एक बार पुनः अप्रैल 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में एक सशक्त जन-आंदोलन खड़ा किया। गांधीजी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की ओर से भाग लिया। लेकिन गांधीजी ने जिस प्रगतिशील, क्षमताूलक, लोकतांत्रिक रूप में न्याय, स्वतंत्रता और समानता पर आधारित संवैधानिक रूपरेखा के सुझाव दिए वे ब्रिटिश सरकार ने अस्वीकार कर दिए। परिणामस्वरूप वार्ता विफल रही।
1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कुटिल चाल चलते हुए अनुसूचित जाति के लिए सांपद्रायिक निर्वाचन की घोषणा दी। लेकिन गांधीजी के अथक प्रयास व सूझबूझ की वजह से डॅा.अम्बेडकर के साथ साम्प्रदायिक निर्वाचन के स्थान पर ‘आरक्षण पद्धति’ पर सहमति हुई जिसे पूना समझौता कहा जाता है।
भारत शासन अधिनियम, 1935 (Govt of India Act, 1935)
- ब्रिटिश शासित प्रान्त एवं देशी रियासतों को मिलाकर भारत में एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना करना।
- विषयों को स्पष्ट रूप से तीन भागों में वर्गीकृत किया गया: संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची।
- केन्द्र शासन के सम्बन्ध में केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना जिसके अन्तर्गत विदेशी मामले, प्रतिरक्षा मामले, देशी रियासतों का विलय जैसे विषय वायसराय अपनी कार्यकारिणी की सहायता से तथा संघ सूची के शेष विषयों पर निर्वाचित मंत्रीमण्डल के परामर्श से कार्य करेगा।
- विधामण्डल द्विसदनीय बना रहा।
- प्रान्तीय सरकार के मामले में द्वैध शासन केा समाप्त कर दिया गया। राज्य सूची के सभी विषयों पर प्रान्तीय गवर्नर द्वारा निर्वाचित मंत्रीमण्डल के परामर्श से कार्य करना।
अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान
- संघीय न्यायालय की स्थापना
- केन्द्रीय बैंक की स्थापना यही कारण है कि आरबीआई एक्ट पारित करके आरबीआई की स्थापना की गयी जिसका 1949 में राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
- संघीय लोकसेवा आयोग की स्थापना की गई।
- बर्मा को स्वतंत्रता दी गयी।
द्वितीय विश्व यु़द्ध की घटना ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन एवं संवैधानिक विकास के लिए एक उत्प्रेरण का कार्य किया। बिना भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के परामर्श एवं सहमति के ब्रिटेन ने भारत को भी द्वितीय युद्ध में अपनी ओर से भागीदार घोषित कर दिया। प्रतिक्रियास्वरूप 6 प्रान्तों की कांग्रेस सरकार ने त्याग पत्र दे दिया। अतः भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने के लिए 1940 से लगातार ब्रिटिश सरकार ने कोशिश की।
अगस्त 1940 का प्रस्ताव
- भारतीयों को अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुसार अपना संविधान बनाने के लिए ब्रिटिश सरकार सहायता देगी लेकिन अभी युद्ध के समय में यह कोशिश नहीं हो सकती। तब तक के लिए वायसराय की कार्यकारिणी में भारतीयों को प्रतिनिधित्व दिया जाएगा।
- इस समय युद्ध परामर्शदात्री परिषद् का गठन किया जाएगा जिसमें बराबर संख्या में भारत व ब्रिटेन का प्रतिनिधित्व होगा।
किन्तु समकालीन राष्ट्रीय नेताओं ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मुख्य वजह थी कि संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा के गठन का प्रावधान नहीं किया गया। इसी बीच जापान भी द्वितीय युद्ध में शामिल हो गया और उसने द्रुतगति से भारत की ओर विजय प्राप्त की। अतः ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत शासन अधिनियम, 1942 के माध्यम से पुनः कोशिश की गयी।
क्रिप्स मिशन, मार्च 1942 (Cripps Mission, March 1942)
- अगस्त 1940 का प्रस्ताव अभी भी जीवित है।
- भारतीयों के लिए संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा का गठन किया जाएगा लेकिन यह युद्ध के बाद ही हो सकता है।
केबिनेट मिशन 1946 (Cabinet Mission, 1946)
3 सदस्यीय दल क्रिप्स, एलेंक्जेंडर, लॅारेंस प्रस्ताव लेकर भारत आया जिसमें से केवल दो बातों को स्वीकार किया गया :-
- संविधान सभा का गठन का प्रावधान
- अंतरिम सरकार का गठन
संविधान सभा
- 389 सदस्य, 10 लाख की आबादी पर एक सदस्य
- 296 ब्रिटिश शासित क्षेत्रों से, 93 देशी रियासतों से उनके राजाओं द्वारा मनोनयन के माध्यम से।
- 296 सदस्य अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के माध्यम से निर्वाचित करना जिसमें आनुपातिक प्रतिनिधित्व व एकल संक्रमणीय मतपद्धति को अपनाना।
- वोट विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा दिया जाना।
जुलाई-अगस्त में संविधान सभा के लिए चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस को असाधारण बहुमत जबकि मुस्लिम लीग को केवल 73 सीट प्राप्त हुई। अतः अल्पमत की स्थिति को देखते हुए मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार कर दिया और 16 अगस्त 1946 को पाकिस्तान की मांग को मनवाने के लिए सीधी कार्यवाही की अपील कर दी। इस प्रकार भारी मात्रा में साम्प्रदायिक दंगे प्रारंभ हो गए। ऐसी स्थिति में कांग्रेस के संविधान सभा के प्रतिनिधियों ने ब्रिटिश सरकार से दिशा निर्देश प्राप्त करने की अपील की। अतः ब्रिटिश सरकार ने बिना मुस्लिम लीग के संविधान निर्माण की प्रक्रिया करने की अनुमति दे दी।
संविधान का निर्माण
9 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई जिसमें सच्चिातानंद सिन्हा को अस्थायी अध्यक्ष चुना गया।11 दिसम्बर 1946 को डॅा. राजेन्द्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष चुन लिया गया तथा पं. जवाहर लाल नेहरू ने 13 दिसम्बर 1946 को सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिस पर व्यापक परामर्श के बाद 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने एकमत होकर स्वीकार कर लिया गया।संविधान सभा में समितियां बनाई गयी। जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है प्रारूप समिति,जिसका अध्यक्ष डॅा. भीमराव अम्बेडकर को बनाया गया। संविधान सभा ने 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में संविधान का निर्माण किया जिसमें 395 अनुच्छेद व 8 अनुसूची जोड़ी गयी।
संविधान के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान 29 नवम्बर 1949 को लागू कर दिए गए लेकिन संपूर्ण संविधान 26 जनवरी 1950 लागू किया जिसे गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।
उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारत स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 जिसके माध्यम से
- भारत को 15 अगस्त 1947 से एक स्वतंत्र सम्प्रभु राज्य के रूप में मान्यता दी गयी और ब्रिटेन की सभी प्रकार की अधिकारिताएँ समाप्त कर दी गयी।
- संविधान सभा को भारतीय संविधान का सम्प्रभु घोषित कर दिया।
- जब तक संविधान सभा भारत के संविधान का निर्माण करके लागू नहीं कर देती है तब तक 15 अगस्त 1947 से भारत के लिए विधायिका के रूप में भी कार्य करेगी।
24 जनवरी 1950 को संविधान सभा की अंतिम बैठक हुई और संविधान सभा के रूप में इसका विघटन कर दिया गया लेकिन जब तक निर्वाचन के माध्यम से संसद का गठन नहीं होने तक यह अंतरिम संसद (17 अगस्त 1952 तक) के रूप में कार्य करती रही।
अंतरिम सरकार
1946 की कैबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत अंतरिम सरकार के गठन को भी स्वीकार किया गया था। संविधान सभा के सदस्यों से ही पं. जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में अंतरिम सरकार का गठन किया गया।
- अंतरिम सरकार के प्रथम सभापति व वायसराय: लॅार्ड माउण्टबेटन
- अंतरिम सरकार के प्रथम उपसभापति: पं. जवाहर लाल नेहरू
- अंतरिम सरकार के प्रथम प्रधानमंत्री: पं. जवाहर लाल नेहरू
संविधान की विशेषताएँ
- लिखित, पूर्ण एवं व्यापक संविधान:- भारतीय संविधान विश्व का सब से बड़ा लिखित एवं पूर्ण संविधान है। यह देश की संवैधानिक एवं प्रशासनिक पद्धति के महत्वपूर्ण पहलुओं का लिखित में समावेश करता है।इसकी व्यापकता का कारण है कि इसमें संघ व राज्यों के बीच सम्बन्धों एवं संघ के साथ-साथ राज्यों की शासन व्यवस्था का भी वर्णन किया गया है।
- लोकसत्ता पर आधारित संविधान:- भारतीय संविधान स्वयं भारतीय जनता द्वारा निर्मित है। इस प्रकार देश की प्रभुसत्ता का स्रोत स्वयं स्वतंत्र भारतीय जनता है जिसकी अभिव्यक्ति संविधान की प्रस्तावना के इन शब्दों से होती है: “हम भारत के लोग …………………………… अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मर्पित करते हैं।”
- अर्द्धसंघात्मक:- भारतीय संविधान ने आधारतः संघात्मक व्यवस्था को अपनाया है किन्तु एकात्मकता के भी लक्षण है।लिखित व पूर्ण संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, केन्द्र व राज्यों का सहअस्तित्व, शक्तियों का स्पष्ट विभाजन आदि संघात्मक लक्षणों के साथ-2 एकल नागरिकता, इकहरी न्यायपालिका, आपातकालीन उपबंध, राष्ट्रपति द्वारा राज्य के संवैधानिक प्रधान की नियुक्ति इत्यादि विशेषताओं के साथ एकात्मकता को भी स्थान दिया गया है।ऐसी अनोखी व्यवस्था को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 में “राज्यों का संघ (Union of States) ” कहा गया है।
- कठोरता व लचीलेपन का समन्वय:- संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया से संविधान की कठोरता व लचीलेपन का पता चलता है।अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन की प्रक्रिया निर्धारित की गई है जिसके अनुसार अधिकांश प्रावधानों में संशोधन संसद के कुल बहुमत एवं उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से किया जाता है।परंतु राज्यों के प्रतिनिधित्व वाले विषयों में कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों का अनुसमर्थन भी आवश्यकहै।कुछ संशोधन संविधान में वर्णित कुछ अनुच्छेदों के आधार पर साधारण बहुमत से भी पारित होते हैं।अतः भारत का संविधान कठोरता व लचीलेपन का समन्वय है।
- संसदीय शासन व्यवस्था:- भारतीय शासन व्यवस्था में दोहरी कार्यपालिका, कार्यपालिका का विधायिका के सदस्यों में से गठन एवं कार्यपालिकाका विधायिका के प्रति उत्तरदायित्व को अपनाया है। इस प्रकार भारतीय संविधान संसदीय शासनप्रणाली की स्थापना करता है।
- संसदीय सर्वोच्चता एवं न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय:- भारत में संविधान सर्वोच्च है और तदनुसार भारत की न्यायपालिका न्यायिक पुनर्विलोकन अथवा न्यायिक पुनिरीक्षण की शक्ति के आधार पर संविधान का अतिक्रमण करने वाली राज्य द्वारा निर्मित विधि को असंवैधानिक घोषित कर सकती है।अतः न्यायपालिका सर्वोच्च है। परंतु अनु. 368 के अनुसार संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है और इस आधार पर संसद न्यायपालिका की शक्तियों को सीमित कर सकती है।इस प्रकार भारतीय संविधान में संसदीय सर्वोच्चता व न्यायिक सर्वोच्चता के मध्य संतुलन स्थापित किया गया है।
- भारतीय संविधान के स्रोत:- ब्रिटिश भारत के पुराने नियम-अधिनियमों यथा भारत शासन अधिनियम, 1935 के साथ-साथ विश्व के विभिन्न लोकतांत्रिक देशों की संवैधानिक व्यवस्थाओं से प्रेरणा ली गई है और उनका भारतीय संविधान में खूबसूरत पैबंद के रूप में उपयोग किया गयाहै।जैसे:- ब्रिटेन से विधि का शासन, संसदीय शासन प्रणाली, संयुक्त राज्य अमेरिका स मूल अधिकार, न्यायिक सर्वोच्चता, सोवियत संघ से मूल कत्र्तव्य, फ्रांस से न्याय, समानता, स्वतंत्रता की अवधारणा, आयरलैण्ड से राज्य के नीति निदेशक तत्व, जर्मनी सेआपातकालीन उपबंधआदि।
- मूल अधिकार एवं नीति निदेशक तत्वों का सहअस्तित्व:- भारतीय संविधान में व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए मूलअधिकारों एवं सामाजिक हितों की रक्षा के लिए राज्य के नीति निदेशक तत्वों का एक साथ समावेश किया गयाहै।
- भारतीय संविधान भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, पंथनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक, गणराज्य के रूप में स्थापित करने पर बल देताहै। सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न:- चूंकिभारतीय संविधान में प्रभुसत्ता का स्रोत स्वयं भारतीय जनताहै।अतःभारत की संप्रभुता भारतीय जनता से है और इस प्रकार भारत बिना किसी बाह्य दबाव के स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने में समर्थ है। पंथनिरपेक्ष:- भारतीय संविधान सभी पंथों का सम्मान करताहै एवं समान संरक्षण देताहै। किसी पंथ विशेष को राजधर्म घोषित नही करताहै। समाजवादी:- भारतीय संविधान सामूहिक हितों को बढ़ावा देताहै और इस उद्देश्य से उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के साधनों पर राज्यों का स्वामित्व स्थापित करताहै। लोकतांत्रिक:- जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन। गणराज्य:- देश का राष्ट्राध्यक्ष वंशानुगत न होकर निर्वाचित किया जाएगा।
- भारतीय संविधान राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता एवं प्रतिष्ठा व अवसर की समानता के मूल्यों को धारण करताहै।
- भारतीय संविधान देश की एकता और अखण्डता पर बल देताहै।
संविधान में संशोधन
भारतीय संविधान 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृत किया गया एवं 26 जनवरी, 1950 को पूर्ण रूप से लागू किया गया।तब से लेकर आज तक हमारे देश की शासन व्यवस्था इसी संविधान के अनुरूप बिना किसी व्यवधान के सुचारू रूप से चल रही है। इसका कारण है कि भारतीय संविधान में समय-समय पर आवश्यकतानुसार परिवर्तन किए जा रहे है, वो भी संविधान की मूल भावना को बनाए रखते हुए।
संविधान में परिवर्तन आवश्यक है क्योंकि संविधान देश की शासन व्यवस्था का आधार है।आज विज्ञान और तकनीक ने समाज में क्रान्तिकारी उथल-पुथल मचा दी है।ऐसे में यदि वर्तमान परिस्थितियों में इसे सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप न ढाला जाए तो संविधान जड़ हो जाएगा एवं राष्ट्र आगे बढ़ जाएगा।
परन्तु भारतीय संविधान एक जीवंत दस्तावेज है जो अपने आदर्शों को संजोकर रखते हुए भी निरन्तर परिवर्तनशील है।इसके लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में संशोधन के लिए नम्यता और कठोरता का अद्भुत सामंजस्य प्रस्तुत किया है।
संविधान संशोधन की प्रक्रिया
भारतीय संविधान में संशोधन करने की शक्ति संसद को दी गई है।संविधान संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है और उसे न्यायिक चुनौति भी नहीं दी जा सकती जब तक कि संविधान की मूल भावना को क्षति नहीं पहुंचे।
संविधान संशोधन की प्रक्रिया को दो भागों में समझ सकते हैं:-
- संविधान में वर्णित कुछ अनुच्छेदों के आधार पर सामान्य बहुमत द्वारा
- अनु. 368 में वर्णित प्रक्रिया के आधार पर
- विशेष बहुमत
- विशेष बहुमत एवं राज्यों का अनुमोदन
साधारण बहुमत द्वारा संशोधन
भारतीय संविधान में कुछ ऐसे अनुच्छेद हैं जिनको संसद केवल साधारण बहुमत अर्थात् साधारण बहुमत अर्थात् सदन में उपस्थित सदस्य संख्या के 50 प्रतिशत से अधिक से संशोधित कर सकती है। इस प्रकार संविधान के इन हिस्सों को लचीला बनाया गया है। ऐसे अनुच्छेद निम्नलिखित हैं:-
- अनुच्छेद 2: नए राज्यों के प्रवेश या गठन।
- अनुच्छेद 3: नए राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन।
- अनुच्छेद 5-11: नागरिकता संबंधी प्रावधान।
- अनुच्छेद 100(3): संसद की अधिवेशन का गठन करनेके लिए गणपूर्ति के सम्बन्ध में।
- अनुच्छेद 106: संसद के सदस्यों के वेतन-भत्ते।
- अनुच्छेद 118: संसद में प्रक्रिया के नियम।
- अनुच्छेद 104: संसद व समितियों की शक्तियाँ व विशेषाधिकार।
- अनुच्छेद 120: संसद में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग।
- अनुच्छेद 124: उच्चतम न्यायालय का गठन।
- द्वितीय अनुसूची या चतुर्थ अनुसूची में परिवर्तन।
- 5वीं व 6ठी अनुसूची के प्रावधान।
विशेष बहुमत के आधार पर
इसके अन्तर्गत किसी भी संशोधन विधेयक को संसद के प्रत्येक सदन की कुल संख्या के बहुमत एवं सदन में उपस्थित व मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से अलग-अलग स्वतंत्र रूप से पारित होना आवश्यक है। इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान नहीं है।
- सर्वोच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के हटाने के संबंध में।
- महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक को हटाने के सम्बन्ध में।
- आपातकालीन उपबंध
- अनु. 169 के अनुसार विधानपरिषदों के उत्साद्न या सृजन में।
विशेष बहुमत एवं राज्यों का अनुमोदन
भारतीय संविधान संघवाद पर आधारित है। अतः संघीय संरचना से सम्बन्धित प्रावधानों में संशोधनों के लिए संसद के विशेष बहुमत के अतिरिक्त कम से कम आधे राज्यों का समर्थन आवश्यक है।
अनु. 368(2) परन्तुक:
- यदि कोई ऐसा संशोधन –
- (क) अनु. 54, अनु. 55, अनु. 73, अनु. 162 या अनु. 241 में, या
- (ख) भाग 5 के अध्याय 4, भाग 6 के अध्याय 5 या भाग 11 के अध्याय 1 में, या
- (ग) सातवीं अनुसूची में, या
- (घ) संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व या
- (ड.) स्वयं अनुच्छेद 368 के उपबन्धों में
परिवर्तन के लिए है तो संसद द्वारा विशेष बहुमत से पारित होने के पश्चात् कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा साधारण बहुमत से पारित होना आवश्यक है।
इस प्रकार उपर्युक्त वर्णित तरीकों में निर्धारित प्रक्रिया से संशोधन विधेयक पारित होने के बाद राष्ट्रपति के पास अनुमति के लिए भेजा जाता है और राष्ट्रपति को इस पर अनुमति देनी ही होगी। किसी भी अन्य विधि निर्माण संबंधी विधेयक की तरह वे इस पर अनुमति रोक नहीं सकते अथवा पुनर्विचार की अपेक्षा नहीं कर सकते।
संविधान संशोधन एवं संविधान की मूल संरचना
शंकरी प्रसाद, सज्जन सिंह आदि के मामले में संसद ने 1951 में प्रथम संशोधन कर संविधान में संपत्ति का मूल अधिकार के संबंध में न्यायालयों के अधिकार सीमित कर 9वीं अनुसूची जोड़ी गयी जिसकी विषय-वस्तु को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। इसके अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने 9वीं अनुसूची की विधि मान्यता को स्वीकार करते हुए सरकार के पक्ष में निर्णय दिए।
तत्पश्चात् 1967 में गोलकनाथ बनाम पंजाब विवाद में संवैधानिक संशोधन को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गई कि अनुच्छेद 368 के तहत किए गए संशोधन अनुच्छेद 13 में उल्लेखित विधि के अन्तर्गत विधिमान्य नहीं है। साथ ही अनुच्छेदु 368 में संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है न कि संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति का। इस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद, संविधान में अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन नहीं कर सकती। संशोधन करने के लिए नई संविधान सभा का गठन किया जाए।
इस पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए एवं न्यायिक शक्तियों को सीमित करने के उद्देश्य से संसद ने 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम से अनुच्छेद 13 में धारा 4 एवं अनुच्छेद 368 में धारा 3 जोड़ते हुए प्रावधान किया कि अनुच्छेद 13 की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए संशोधन पर लागू नहीं होगी। साथ ही अनुच्छेद 368 में संविधान में “संशोधन की प्रक्रिया” को “संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति व उसके लिए प्रक्रिया” से प्रतिस्थापित किया गया।
1973 में केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य में सर्वोच्च न्यायालय ने 24वें संविधान संशोधन अधिनियम की उपरोक्त विषय-वस्तु को विधि मान्यता प्रदान कर दी एवं 1967 के अपने फैसले को पलटते हुए निर्णय दिया कि संसद, संविधान में संशोधन कर सकती है परन्तु संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती जो संविधान की मूल संरचना पर प्रतिकूल प्रभाव डाले अर्थात् संसद, ‘उद्देशिका और भारतीय संविधान की मोटी-2 रूपरेखा’ के अन्तर्गत रहते हुए संविधान में संशोधन कर सकती है। इस प्रकार संविधान की “मूल संरचना का सिद्धांत” केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य में दिया गया। हालांकि मूल संरचना का स्पष्ट विवरण नहीं दिया गया।
इस निर्णय के बाद 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम से संसद न्यायिक शक्तियों को सीमित करने के उद्देश्य से अनुच्छेद 368 में धारा 4 व धारा 5 जोड़ते हुए प्रावधान किया कि संसद की संशोधन करने की शक्ति को किसी भी आधार पर न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता एवं संसद की संशोधन करने की शक्ति असीमित है।
तत्पश्चात् 1980 में मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ केस में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायिक समीक्षा संविधान के बुनियादी ढाँचे का तत्व है। अतः धारा 368 की धारा 4 एवं धारा 5 इस पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। इस आधार पर इन्हें विधिशून्य घोषित किया जाता है। अतः वर्तमान में संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत संसद की संशोधन शक्ति पर सीमा बना हुआ है और इस प्रकार यह सिद्धांत संसदीय सर्वोच्चता एवं न्यायिक सर्वोच्चता के मध्य संतुलन स्थापित करता है। विभिन्न निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने मूल संरचना से संबंधी निम्न तत्वों को स्पष्ट किया है:-
- प्रभुत्व सम्पन्न गणराज्य
- लोकतंत्र
- न्याय
- स्वतंत्रता
- समानता
- न्यायिक समीक्षा
- बंधुता
- राष्ट्र की एकता और अखण्डता
- व्यक्ति की प्रतिष्ठा और गरिमा
- समाजवाद
- पंथनिरपेक्षता
- संघवाद
Good।