Socio-religious Reform Movements in 19th and 20th Century

19वीं – 20वीं शताब्दी में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन (Socio-religious Reform Movements in 19th and 20th Century): सुश्री अर्चना महावर (सवाई माधोपुर) का आर्टिकल जो आरएएस (RAS), सिविल सेवा तथा राजस्थान एवं भारत की विभिन्न परीक्षाओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।

19-20वीं सदी में भारतीय लोगों का पश्चिमी सभ्यता से सम्पर्क होने पर भारतीय समाज और संस्कृति में व्याप्त कमजोरियों और बुराइयों का पता चला जो उनके आर्थिक एवं सामाजिक शोषण का कारण थी। चूंकि भारतीय समाज धर्म से जुड़ा हुआ था। इसलिए समाज में सुधार के लिए धर्म में सुधार आवश्यक था जो मध्यकालीन कुरीतियों में जकड़ा हुआ था। अतः इन कमजोरियों को दूर करने के उद्देश्य से कुछ बुद्धिजीवियों ने प्राचीन भारतीय धर्म-दर्शन का अस्तित्व स्वीकार किया एवं पाश्चात्य शिक्षा एवं वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर इसकी पुनव्र्याख्या की। इस प्रकार 19-20वीं सदी में बौद्धिकता, विज्ञानवाद, तर्कवाद के आधार पर भारतीय समाज में सुधार कई सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसके कारण इस काल को भारत का पुनर्जागरण काल कहा जाता है।

1. ब्रह्म समाज

राजा राममोहन राय

जन्म: 22 मई 1772 के बंगाल के हुगली जिले में।

राजा राममोहन राय प्रथम भारतीय थे जिन्होंने सर्वप्रथम भारतीय समाज में हिन्दू धर्म में व्यापत मध्ययुगीन कुरीतियों के विरोध में आन्दोलन प्रारम्भ किया। वे मानवतावाद और विवेक पर आधारित सिद्धांतों के समर्थक थे। अपने नवीन विचारों के कारण ही उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का जनक और आधुनिक भारत का प्रथम नेता कहा जाता है।
वे विभिन्न भाषाओं के विद्वान थे: संस्कृत, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, ग्रीक, हिब्रू।
राजा राममोहन राय प्राच्य एवं पष्चिमी संस्कृति के संष्लिष्ट रूप के प्रतिनिधि थे। अतः उन्होंनेे हिन्दू दर्षन, जैन धर्म, संस्कृत साहित्य, कुरान, बाइबिल व अन्य धार्मिक पंथों सहित पाष्चात्य चिंतन और संस्कृति का गहन अध्ययन किया। अध्ययन के पष्चात् उन्होंने इस्लाम के एकेश्वरवाद, सूफीमत के रहस्यवाद, ईसाई धर्म की आचार शास्त्रीय नीतिपरक षिक्षा और पष्चिम के उदारवादी बुद्धिवादी सिद्धांतों को अपने विचारों में अपनाया

धार्मिक सुधार
1809 में फारसी में अपनी पुस्तक तुहफात-उल-मुवाहिदीन(एकेश्वरवादियों का उपहार – गिफ्ट टू मोनोथेसिस्ट) प्रकाषित की।
1815 में एकेष्वरवाद का प्रचार हेतु आत्मीय सभा का गठन किया। साथ ही उन्होंनेे हिन्दू धर्म ग्रंथों, वेदों-उपनिष्दों को प्रमाण बनाकर मूर्तिपूजा, पुरोहितवाद व आडम्बरों का विरोध किया। उनका मानना था कि वेदांत दर्षन मानवीय तर्क शक्ति पर आधारित है और मनुष्य को प्राचीन धर्मग्रंथों, शास्त्रों एवं पारम्परिक विरासतों का अनुसरण विवेक एवं तर्क के आधार पर करना चाहिए। ऐसे किसी भी आडम्बर, परंपराएँ या रीति-रिवाज वहन नहीं करना चाहिए जो समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही हों।
1820 में उन्होंने प्रीसेप्ट्स आफ जीसस नामक पुस्तक प्रकाषित की जिसमें उन्होंने ईसाई धर्म के उच्च नैतिक व दार्षनिक संदेषों को ग्रहण किया।
साथ ही उनका मानना था कि पष्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण न किया जाए बल्कि पष्चिमी संस्कृति को बौद्धिकता के आधार पर सृजनात्मक प्रक्रिया के द्वारा हिन्दू धर्म में समाहित किया जाए।
अतः 1829 में उन्होंने ब्रह्म समाज का गठन किया जिसका उद्देष्य हिन्दू धर्म को स्वच्छ बनाना एवं एकेश्वरवाद की षिक्षा देना था। इसके दो आधार थे – प्राच्य दर्षन एवं तर्क शक्ति।
राजा राममोहन राय के धार्मिक सुधार का उद्देष्य राजनीतिक उत्थान था।

देवेन्द्र नाथ टैगोर

सामाजिक सुधार
राजा राममोहन राय मानवीय प्रतिष्ठा के समर्थक थे। उन्होने जातिप्रथा का विरोध किया। उन्होंने महिलाओं के लिए कई उत्थान कार्य किए। सामाजिक कुरीतियों के विरोध में उन्होंने 1818 में अमानवीय सती प्रथा के विरूद्ध ऐतिहासिक आन्दोलन चलाया एवं उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप 1829 में भारत के गवर्नर जनरल लाॅर्ड विलियम बैंटिक ने 1829 में सती प्रथा के विरूद्ध कानून पारित किया।
1822 में हिन्दू उत्तराधिकार नियम नामक पुस्तक प्रकाषित की जिसमें महिलाओं के सम्पति के अधिकार को उन्होंने समर्थन दिया।
उन्होंने समानता पर बल दिया एवं बहुविवाह और विधवाओं की अवनत स्थिति की आलोचना की।
षिक्षा के क्षेत्र में आधुनिक षिक्षा के प्रचार के लिए 1817 में कलकत्ता में हिन्दू काॅलेज की स्थापना में समर्थन दिया एवं एक अंग्रेजी स्कूल का संचालन किया।
1825 में वेदांत काॅलेज की स्थापना की जिसमें भारतीय दर्षन एवं पाष्चात्य सभ्यता का अध्ययन करवाया जाता था।

राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद ब्रह्म समाज का संचालन किया।
1839 में तत्वरंजिनी सभा(तत्व बोधिनी सभा) की स्थापना की एवं तत्वबोधिनी पत्रिका का बांग्ला में प्रकाषन किया।
1843 में ब्रह्म समाज का पुनर्गठन किया।
विधवा विवाह, बहुविवाह का उन्मूलन, नारी षिक्षा, रैयत की दषा में सुधार, आत्म संयम के आन्दोलन का समर्थन किया।

2. यंग बंगाल आन्दोलन एवं हेनरी विवियन डेरेजियो

1809 में कलकत्ता में जन्में डेरेजियो को आधुनिक भारत का प्रथम राष्ट्रवादी कवि कहा जाता है।
डेरेजियो ने पुरानी आडम्बरपूर्ण प्रथाओं, कृत्यों और रीति-रिवाजों की आलोचना की। समाज सुधार के लिए एकेडिमिक एसोसिएषन और सोसाइटी फाॅर द एक्वीजीषन आॅफ जनरल नाॅलेज नामक संगठनों की स्थापना की। डेरेजियो नारी षिक्षा एवं नारी अधिकारों के समर्थक थे। उनके द्वारा शुरू किए गए यंग बंगाल आन्दोलन के प्रमुख मुद्दे थे – प्रेस की स्वतंत्रता, ब्रिटीष उपनिवेषों में भारतीय मजदूरों के साथ बेहतर व्यवहार, अत्याचारी जमींदारों से रैयतों की सुरक्षा एवं सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को रोजगार देना। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने डेरेजिया एवं उनके अनुयायियों को बंगाल में आधुनिक सभ्यता के अग्रदूत कहा है।

3. ईष्वर चन्द्र विद्यासागर

जन्म: 26 सितम्बर 1820 में बंगाल के हुगली जिले में।
ये महान विद्वान, दार्षनिक, षिक्षाविद् एवं समाज सुधारक थे।  प्रमुख रूप से उन्होंने महिलाओं के उत्थान के लिए कार्य किया। तत्कालीन समय में पुरूष प्रधान समाज के चलते पाष्चात्य षिक्षा से लड़कियों को दूर रखा जाता था। अतः उन्होंने नारी षिक्षा को बढ़ावा देते हुए 35 बालिका विद्यालयों की स्थापना की। बालविवाह एवं बहुविवाह का विरोध किया। विधवा पुनर्विवाह के प्रबल समर्थक थे और इसकी वैधानिकता के पक्ष में षास्त्रों का प्रमाण देकर एक जोरदार आन्दोलन प्रारंभ किया। उनके प्रयासों के फलस्वरूप 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हुआ। षिक्षा के क्षेत्र में संस्कृत सीखने के लिए एक बंगाली वर्णमाला का विकास किया।  वे संस्कृत अध्ययन पर ब्राह्मण के एकाधिकार के विरोधी थे। अतः उन्होंने संस्कृत षिक्षा के दरवाजे सभी वर्गों के लिए खोल दिए।

4. आर्य समाज एवं दयानन्द सरस्वती

जन्म: 1824 में गुजरात के टंकारा में ब्राह्मण परिवार में हुआ।
1860 में स्वामी विरजानन्द से प्रभावित होकर उनके षिष्य बनकर वेदों की दार्षनिक व्याख्या की और देष के विभिन्न स्थानों का भ्र्रमण कर षास्त्रार्थ किया। वैदिक दर्षन के आधार पर ही उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त कर धार्मिक एवं सामाजिक सुधार किए। इनका उद्देष्य हिन्दू भारतीय समाज में आई कुरीतियों को समाप्त कर प्राचीन वैदिक धर्म के शुद्ध रूप को स्थापित करना था।

धार्मिक सुधार

1875 में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने पुराणों की प्रमाणिकता को अस्वीकार कर पुराणों को अंधविष्वास, मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, पषुबलि, पुरोहितवाद जैसी कुरीतियों के लिए उत्तरदायी बताया। वे शुद्ध वैदिक दर्षन में विष्वास रखते थे और वेदों को हिन्दू धर्म का वास्तविक आधार मानते हुए वेदों की और लौटो का नारा दिया। उन्होंने कहा कि वेदों की भाषा अत्यन्त प्राचीन होने के कारण इस पर लिखे गए सभी भाष्यों का सत्य होना आवष्यक नहीं है। अतः वेदों की व्याख्या तर्क की कसौटी पर रखकर विवेकपूर्ण करना चाहिए। शुद्धि आन्दोलन के माध्यम से इन्होंने हिन्दू धर्म का परित्याग कर अन्य धर्म में शामिल होने वाले लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल किया।

सामाजिक सुधार

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी प्रमुख पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में अपनी शिक्षाओं का संकलन किया है। वर्ण व्यवस्था को जन्म के स्थान पर कर्म के आधार पर मानकर सामाजिक समानता एवं समरसता का उपदेष दिया। आर्य समाज के माध्यम से छुआछूत, जातिवाद, बाल विवाह, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा का विरोध किया।
विधवा विवाह एवं अन्र्जातीय विवाह का समर्थन किया। स्त्री पुरूष समानता पर बल दिया। उनके अनुसार वेदों में स्त्रियों एवं शूद्रों को भी वेदों का अध्ययन एवं यज्ञोपवीत धारण करने की मनाही नहीं है। उन्होंने प्राकृतिक संकट के समय समाज सेवा को उपदेष दिया। आर्य समाज के माध्यम से गायों की रक्षा हेतु गौ रक्षा आन्दोलन चलाया एवं गौ रक्षिणी सभा की स्थापना की।

5. मानव धर्म सभा एवं परमहंस मंडली

मानव धर्म सभा की स्थापना 1844 में गुजरात के सूरत में दुर्गाराम मेहता एवं दादोबा पांडुरंग द्वारा की गयी थी। इसका उद्देश्य जातपात का विरोध कर समानता पर बल देना था। इसने आध्यात्म को धर्म से जोड़ा एवं एकेश्वरवाद की शिक्षा दी। 1849 में दादोबा पांडुरंग मानव धर्म सभी को छोड़कर महाराष्ट्र चले गए और बंबई में परमहंस मंडली की स्थापना की और मानव धर्म सभा की शिक्षाओं का अनुसरण किया। इस मंडली के सभी सदस्यों को साथ बैठकर निम्न जाति के सदस्यों द्वारा पकाया गया भोजन ग्रहण करना पड़ता था।

इसके प्रमुख सिद्धांत थे:

  • केवल ईश्वर की पूजा होनी चाहिए।
  • प्रेमभाव एवं नैतिक आचरण पर आधारित धर्म ही सत्य धर्म है।
  • समस्त मानव जाति एक समुदाय है।
  • प्रत्येक व्यक्ति को विचारों की स्वतन्त्रता है।
  • सही ज्ञान सभी को देना चाहिए। इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर इन्होंने बहुदेववाद, जातिप्रथा, बहुविवाह, बाल विवाह और ब्राह्मणवाद का विरोध किया और अन्तर्जातीय भोजन, अन्र्तजातीय विवाह, स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह का समर्थन किया। बाद में इसकी शाखाएँ पूना, नागपुर, सतारा में भी खोली गई। 1860 के बाद आन्दोलन कमजोर पड़ गया।

6. प्रार्थना समाज

केशवचंद्र सेन की महाराष्ट्र यात्रा से प्रभावित होकर आत्माराम पांडुरंग ने 1867 में बंबई में प्रार्थना समाज की स्थापना की। विचारों, शिक्षाओं की प्रकृति में यह ब्रह्म समाज एवं परमहंस मंडली से समानता रखता था। बाद में एम. जी. रानाडे एवं आर. जी. भण्डारकर के इससे जुड़कर नई शक्ति और ऊर्जा प्रदान की। 1870 में एम.जी. रानाडे ने पूना में सार्वजनिक सभा की स्थापना की। एम.जी. रानाडे को पश्चिमी भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा जाता है। तेलूगु समाज सुधार वीरेशलिंगम ने इसकी विचारों का दक्षिण भारत में प्रचार किया।

7. रामकृष्ण मिषन एवं स्वामी विवेकानन्द

रामकृष्ण मिषन एक आध्यात्मिक एवं धार्मिक आंदोलन था जिसकी स्थापना रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं के प्रचार हेतु की गई थी। इस दिषा में प्रथम प्रयास स्वामी विवेकानन्द द्वारा सन् 1887 में रामकृष्ण मठ की स्थापना करके की गयी। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के अनुसार ईश्वर प्राप्ति के कई साधन है और मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है। वे धार्मिक मुक्ति के लिए त्याग-ध्यान-भक्ति की पारंपरिक विधियों में विश्वास रखते थे। वे सभी धर्मों को सत्य मानते थे एवं मूर्तिपूजा में विष्वास रखते थे।

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 1863 में कलकत्ता में हुआ एवं मूल नाम नरेन्द्र दत्त था। वे वेदांत के अनुयायी थे और वेदों को सबसे विवेकशील सिद्धांत मानते थे। 1836 में उन्होंने वेदांत सभाओं की स्थापना की। 1887 में रामकृष्ण मठ की स्थापना करने के बाद जब समूचा विश्व में पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण कर रहा था तब 1893 में अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म संसद में हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए अपना विश्व प्रसिद्ध भाषण दिया जिससे भारत को विश्व का आध्यात्मिक गुरू कहा जाने लगा। उन्होंने जाति-प्रथा, कर्मकांड, पूजा-पाठ,  धार्मिक एकता में विश्वास एवं धार्मिक बातों में संकुचित दृष्टिकोण की आलोचना की। उन्होंने धर्म को समाज की आवष्यकताओं के अनुरूप ढालने का प्रयास किया। उन्होंने धर्म का उपयोग सामाजिक कार्यो के लिए करने को कहा। वे एकेश्वरवादी एवं मानवतावादी थे तथा पीड़ित एवं निर्धन मनुष्यों की सेवा ही मनुष्य का परम धर्म एवं ईश्वर की सच्ची सेवा मानते थे।
1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जिसके माध्यम से पूरे भारत में स्कूल, काॅलेज, अस्पताल, अनाथालय, पुस्तकालय, दवाखाने खोलकर सामाजिक कल्याण एवं समाज सेवा की। उन्होंने स्वाधीनता, समानता एवं स्वतंत्र चिंतन की भावना अपनाने पर जोर दिया।

8. थियोसोफिकल सोसायटी

स्थापना: मैडम एच.पी.ब्लावत्सकी एवं एच.एस.अलकाॅट 1975 में न्यूयाॅर्क में की।

इसकी स्थापना का उद्देश्य में सभी मनुष्यों में विश्व बंधुत्व स्थापित करना एवं भारत के सभी प्राचीन धर्म एवं दर्शन का अध्ययन को प्रोत्साहन देना था। ये पश्चिमी देशों के लोगों द्वारा चलाया गया आंदोलन था जो भारत के प्राचीन धर्म का प्रचार प्रसार कर रहा था। 1882 में मद्रास के वाडयार में इसका भारत में प्रथम कार्यालय खोला गया। श्रीमती एनी बेसेन्ट 1893 में भारत आई और 1907 में इसकी अध्यक्ष बनी। श्रीमती बेसेन्ट भारतीय धर्म-दर्शन की शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए बनारस में केन्द्रीय हिन्दू विद्यालय की स्थापना की जिसे 1916 में पं. मदन मोहन मालवीय द्वारा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया गया।

9. मुस्लिम धर्म सुधार आन्दोलन

अलीगढ़ आन्दोलन एवं सर सैयद अहमद खान
मुस्लिम धर्म सुधार आन्दोलन की शुरूआत 1863 में मुहम्मडन लिटरेरी सोसयटी की स्थापना से हुई। इसके माध्यम से पाश्चात्य शिक्षा का उपयोग करके सामाजिक-धार्मिक सुधार करना था।

प्रमुख सुधारक – सर सैयद अहमद खान ने कुरान को इस्लाम की एकमात्र प्रमाणिक पुस्तक माना एवं इसकी बुद्धिवाद, विज्ञानवाद, तर्कवाद के आधार पर पुर्नव्याख्या की।
इनके अनुसार मुस्लिमों में मध्यकालीन रीति-रिवाजों एवं विचारों के विरूद्ध धार्मिक एवं सामाजिक सुधार के लिए वैज्ञानिकता पर आधारित आधुनिक एवं पाष्चात्य ज्ञान का आवश्यक माना। मुस्लिमों में उदारवादी विचारों के प्रसार के लिए 1866 में मुहम्मडन एजुकेशनल काॅन्फ्रेंस की स्थापना की। आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए कई विद्यालय खोले, पष्चिमी ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद किया। 1875 में मुहम्मडन एंग्लो-ओरियन्टल काॅलेज की स्थापना की जो बाद अलीेगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कहलाया। वे धार्मिक सहिष्णुता एवं सभी धर्मों की एकता के समर्थक थे। वे धार्मिक कट्टरता एवं साम्प्रदायिकता के विरोधी थे।
समाज सुधारक के रूप में उन्होंने पर्दा प्रथा को समाप्त करने एवं स्त्री शिक्षा पर जोर दिया। बहुविवाह एवं तलाक के रिवाजों की भी निन्दा की।

देवबन्द आन्दोलन

यह एक धर्म सुधार आन्दोलन था जिसका प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों में राजनैतिक जागृति लाना था। इसकी शुरूआत मौलाना हुसैन अहमद द्वारा 1866 में देवबन्द में दार-उल-उलूम की स्थापना के साथ हुई। इसके माध्यम से इस्लाम की उदारवादी व्याख्या करके उसे पुनजीर्वित कर मुस्लिमों की आध्यात्मिक एवं नैतिक स्थिति सुधारने का प्रयास किया गया।

10. पारसी धर्म सुधार आन्दोलन

1851 में दादा भाई नौरोजी, नौरोजी, फरदोनजी, एस.एस. बंगाली ने रहनुमाई मज्दयासान सभा की स्थापना की। इस आन्दोलन के माध्यम से धार्मिक रूढ़िवाद का विरोध किया गया एवं स्त्रियों की सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए पारसी रीति-रिवाजों का आधुनिकीकरण किया गया। महिलाओं के कानूनी अधिकार, पारसी लोगों का विवाह एवं उत्तराधिकार सम्बन्धी कानून बनाने के लिए आंदोलन किए। बाल विवाह एवं ज्योतिष शास्त्र का विरोध किया।

11. सिख धार्मिक सुधार आन्दोलन

निरंकारी आन्दोलन

इस आन्दोलन की शुरूआत बाबा हरदयाल दास द्वारा शुद्धि आन्दोलन के रूप में की गई। इस आन्दोलन का उद्देष्य सिख धर्म को पुनः शुद्ध रूप में स्थापित करना, ईश्वर के निरंकार रूप की पूजा करने, मूर्तिपूजा का विरोध कराना, धार्मिक अनुष्ठानों का संचालन करने वाले पुजारियों का त्याग करना था। इसके लिए उन्होंने गुरू नानक एवं गुरूग्रंथ साहिब को अपना माध्यम बनाया।

नामधारी आन्दोलन

स्थापना – बाबा राम सिंह
उद्देष्य – गुरवाणी का पाठ करते हुए कर्मकांडों का विरोध, मूर्ति, देवी-देवता, पेड, सांप इत्यादि की पूजा का विरोध किया। शराब पीना, चोरी करना, व्यभिचार, गौ मांस का उपयोग पर प्रतिबंध था।

अकाली आन्दोलन

1858 के बाद सिख धार्मिक सुधार आन्दोलन की शुरूआत 1883 अमृतसर खालसा काॅलेज की स्थापना से हुई जिसमें पूर्व में संचालित सिहं सभाओं को शामिल करते हुए इसे एक केन्द्रीय संगठन का दर्जा दिया गया। इस आन्दोलन काउद्देष्य सिख धर्म को पुनः शुद्ध रूप में स्थापित करना, सिख धर्म त्यागियों का पुनः सिख धर्म में शामिल करना, जाति प्रथा के दोषों को दूर करना, धार्मिक प्रतिबंधों को समाप्त करना था। इस आन्दोलन के सुधार प्रयासों को 1920 के दषक में पंजाब में शुरू हुए अकाली आन्दोलन ने बढ़ाया। इस आन्दोलन का उद्देष्य सिख गुरूद्वारों से भ्रष्ट एवं स्वार्थी महंतों को हटाकर गुरूद्वारों को शुद्ध करना था। इस आन्दोलन के माध्यम से 1922 में सिख गुरूद्वारा कानून बना जिसके माध्यम से गुरूद्वारों से महंतों को हटाकार षिरोमणि प्रबंधक समिति द्वारा गुरूद्वारा का प्रबंधन संभाला गया।

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