भारतीय धरोहर (Indian Heritage): प्रदर्शन कलाएं (Performing Arts)

Admin Comment: सुश्री सुषमा लहुवा (श्री गंगानगर) का आर्टिकल जो आरएएस (RAS), सिविल सेवा तथा राजस्थान एवं भारत की विभिन्न परीक्षाओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।

इस पाठ में हम भारत के विशेष संदर्भ में प्रदर्शन कलाओं के विषय में जानकारी हासिल करेंगे। लेकिन आगे बढ़ने से पहले कला के अर्थ और उसके वर्गीकरण पर चर्चा कर लेना समझदारी वाला काम होगा।

I. कला का अर्थ (Meaning of Arts)

कला (Art) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को ही स्पष्ट कर पाती हैं। अतः कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो सका है।

‘साहित्य तरंग’ में प्रस्तुत व्याख्या के अनुसार ‘कं (कामदेवं अर्थात् सुख) लाति इति कलम्’। उक्त ग्रंथ में ‘कल’ एवं ‘कला’ के पारस्परिक सानिध्य को दर्शाया गया है। ‘कल’ धातु का अर्थ होता है – सुख देना, आनंदित करना, शोभा प्रदान करना आदि। इस प्रकार कला का अर्थ होता है – कोमल, मधुर, सुंदर एवं सुख देने वाला आदि।

कला अभिव्‍यक्ति का एक रचनात्मक माध्यम है जिसमें कौशल व उसके सराहे जाने की अपेक्षा रहती है।

II. कलाओं का वर्गीकरण (Classification of Arts)

कलाओं के वर्गीकरण में मतैक्य होना संभव नहीं है। वर्तमान समय में कला को मानविकी के अंतर्गत रखा जाता है जिसमें इतिहास, साहित्य, दर्शन और भाषाविज्ञान आदि शामिल हैं।

पाश्चात्य जगत में मुख्यतया उपयोगिता के आधार पर कला के दो भेद किये गए हैं—

I. ललित कलाएँ (Fine Arts)— ललित कला मुख्यतया मनोविनोद के लिए प्रयुक्त होती है।

II. अनुप्रयुक्त कलाएं (Applied Arts)— अनुप्रयुक्त कलाओं का प्रयोग दिन प्रतिदिन के जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को सुंदर और मनभावन बनाने में किया जाता है। इस शब्द का प्रयोग ललित कलाओं से विभिन्नता दर्शाने के लिए किया जाता है।

I. ललित कलाएं (Fine arts)

ललित कला एक व्यापक शब्द है जिसके अंतर्गत दृश्य कला (चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, फोटोग्राफी आदि), प्रदर्शन कला (नृत्य, नाट्य, संगीत, अभिनय, संवाद/भाषण), काव्य, फिल्म आदि शामिल की जा सकती हैं। जिस कला में सुकुमारता और सौंदर्य की अपेक्षा रहती है तथा जिसकी सृष्टि मुख्यतः मनोविनोद के लिए हो, ऐसी कलाओं को ललित कलाएं कहा जाता है।

‘ऐसी रचनात्मक कला, विशेषतः दृश्य कला, जिनके उत्पादों को मुख्यतः या केवल उनकी कल्पनाशीलता, सौंदर्य या बौद्धिकता के कारण सराहा जाता है।’ (Creative art, esp. visual art, whose products are to be appreciated primarily or solely for their imaginative, aesthetic, or intellectual content.)

दृश्य कलाएं (Visual arts)

‘कला का ऐसा रूप जो मुख्य रूप से दृश्य प्रकृति का होता है।’ (Art forms that create works that are primarily visual in nature.) दृश्य कला सामान्यतया चित्रकला, मूर्तिकला, फोटोग्राफी और इस प्रकृति की अन्य कलाओं को संदर्भित करती है। दृश्य कला के अंतर्गत चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला और फोटोग्राफी के माध्यम से भाव या रस को अभिव्यक्त किया जाता है एवं संदर्भित दृश्य में स्थिरता का गुण विद्यमान रहता है।

प्रदर्शन कलाएं (Performing Arts)

प्रदर्शन कला या निष्पादन कला के अंतर्गत नृत्य, नाट्य, संगीत, अभिनय, संवाद/भाषण आदि के माध्यम से भाव या रस को अभिव्यक्त किया जाता है एवं संदर्भित दृश्य में परिवर्तनशीलता का गुण देखा जा सकता है।

कुछ कलाओं में दृश्य कला और प्रदर्शन कला दोनों के गुण पाए जा सकते हैं, जैसे- चलचित्र।

कला में भाषा से भी अधिक विचार एवं भाव संप्रेषण की शक्ति होती है। भाषा के द्वारा तो बोल कर एक दूसरे के साथ विचार विनिमय संपन्न किया जाता है परंतु कला भाषा की सीमाओं से परे जाकर अपने आकार प्रकार तथा रंगादि के संयोजन से मूक रूप में ही सर्वबुद्धिग्राह्य बन जाती है।

—मीनाक्षी कांत

कलाओं के उपर्युक्त वर्गीकरण को समझ लेने के बाद अब हम भारत के संदर्भ में प्रदर्शन कलाओं पर बात आरंभ करते हैं।

भारतीय नृत्य विधाएं

भारत में नृत्य की परंपरा प्राचीन काल से रही है। भारतीय पौराणिक कथाएं नृत्य विधाओं व अभिव्यक्तियों के दृष्टांतो से भरी हुई हैं। गुफाओं में मिले चित्र ,मोहनजोदड़ो की ‘नृत्य करती स्त्री की मूर्ति ‘,वेद ,उपनिषद व अन्य महाकाव्य से मिले साक्ष्य भारतीय प्रदर्शन कला में नृत्य के महत्व को उजागर करते हैं। नृत्य का पहला औपचारिक उल्लेख भरत मुनि की प्रसिद्ध कृति ‘नाट्यशास्त्र’ से मिलता है।

नृत्य के अंग:-

भारतीय नृत्य कला के मुख्य दो अंग माने जाते हैं- 1).तांडव नृत्य 2) लास्य नृत्य

(1)तांडव नृत्य  – तांडव नृत्य का संबंध सृष्टि के उत्थान और पतन से माना जाता है। तांडव नृत्य में दो भंगिमाँएं होती हैं -रौद्र रूप व आनंद प्रदान करने वाला रूप। रौद्र रूप उग्र होता है व इसे करने वाले ‘रौद्र’ कहलाए जबकि दूसरा रूप आनंद प्रदान करने वाला रूप है जिसे करने वाले ‘नटराज’ कहलाए ।यह अत्यंत पौरूष व शक्ति  के साथ किया जाता है।

(2). लास्य नृत्य – लास्य नृत्य की मुद्राएं कोमल , स्वभाविक व प्रेम पूर्ण होती हैं।  नृत्य का यह रूप नारी सुलभ विशेषताओं का प्रतीक है।

नृत्य के मूलभूत पक्ष –  नंदीकेश्वर के प्रसिद्ध ग्रंथ अभिनव दर्पण के अनुसार अभिनय के तीन आधारभूत तत्व होते हैं –

1)  नृत्त – मूलभूत नृत्य कदम

            कोई भाव नहीं ।

2)  नाट्य – नाटकीय प्रदर्शन

             कथा का नाटक रूप में प्रस्तुतीकरण

(3)  नृत्य – भावना एवं मनोविकार

             मुद्राओं का प्रयोग

नृत्य के रस – 1.श्रृंगार रस   2. रुद्र रस   3. विभत्सव रस   4. शांत  रस   5.हास्य रस 6.करुणा रस 7 वीर  रस  8. भयानक रस  9 . अदभुत रस

शास्त्रीय नृत्य -1 . भरतनाट्यम 2. कुचिपुड़ी 3.कथकली 4.ओडिसी 5. मणिपुरी  6.कत्थक 7.मोहिनीअट्टम 8. सत्रिय

1) .भरतनाट्यम –

              भरतनाट्यम शब्द की उत्पत्ति संबंधित दो धारणाएं  है ।पहली धारणा के अनुसार भरतनाट्यम का नाम भरत मुनि व नाट्य शब्द से मिलकर बना है ।तमिल में नाट्यम शब्द का अर्थ नृत्य होता है। दूसरी अवधारणा के अन्तर्गत कई विद्वान्  भरत नाम का श्रेय भाव, राग व ताल को देते है।( भ – भाव ,र- राग , त -ताल )

यह तमिल संस्कृति का एकल नृत्य है तथा मंदिर की देवदासियों द्वारा किया जाता था इसलिए इसे ‘दाशीअटटम’ भी कहा जाता था ।

इसमें नृत्य अभिनय व शारीरिक भंगिमा पर विशेष बल दिया जाता है ।

इस नृत्य का प्रारंभ  ‘अलरीपु’ द्वारा किया जाता है। जिसका उद्देश्य ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करना है।

इस नृत्य का अंत ‘ तिल्लाना’ / ‘थिल्लन’ से किया जाता है।

प्रमुख कलाकार  -यामिनी कृष्णमूर्ति , मृणालिनी साराभाई , मल्लिका साराभाई , पद्मा सुब्रमण्यम,  लक्ष्मी विश्वनाथ आदि।

(2) कुचीपुड़ी –

    यह आंध्र प्रदेश के एक नृत्य शैली है ।कुचिपुड़ी नृत्य विधा का नाम आंध्र के एक गांव कुसेल्वापूरी या कुचेलापुराम से व्युत्पन्न हुआ। 

प्रारंभ में यह केवल ब्राह्मण पुरुषो द्वारा किया जाता था ।

यह गीत व नृत्य का समन्वित रूप है  व भागवत पुराण इसका मुख्य आधार है ।

इस नृत्य में पद संचलन में हस्त मुद्राओं का विशेष महत्व है।

कुचिपुड़ी नृत्य का सबसे अधिक लोकप्रिय  रूप मटका नृत्य है जिसमें एक नर्तकी मटकी में पानी भरकर उसे अपने सिर पर रखकर पीतल की थाली में पैर जमा कर नृत्य करती है। नृत्य  के दौरान नर्तक अपने पैर के अंगूठे से फर्श पर एक आकृति बनाता है।

मुख्य कलाकार -यामिनी कृष्णमूर्ति ,राजा रेड्डी, राधा रेड्डी , इन्द्राणी रहमान आदि।

(3) कथकली –

केरल के मंदिरों में शास्त्रीय नृत्य की यह विधा विकसित हुई ।

कथकली का अर्थ है  – एक कथा  नाटक या  एक नृत्य नाटिका ।

केरल के स्थानीय लोकनाटक कुडियाट्टम एवं कृष्नाटम इसके प्रेरणा स्रोत हैं।

नर्तक द्वारा रामायण , महाभारत, व पुराणों के चरित्रों का अभिनय किया जाता है।

कथकली  पुरुष मंडली द्वारा किया जाने वाला प्रदर्शन है।

इसमें चेहरे पर हरा , लाल ,पीला ,काला, सफेद रंग का प्रयोग किया जाता है। इसमें हरा रंग सदगुण, देवत्व , कुलीनता का,  लाल रंग बुराई का (नाक के बगल में लाल धब्बा राजसी गौरव का), पीला रंग सात्विक व राजसिक  प्रभाव का, काला रंग  तामसिक स्वभाव का , सफेद रंग चेतना व देवत्व वाले प्राणियों को इंगित करता है।

 इस नृत्य  में चेहरे के हावभाव,   नृत्य के भोंहों  के संचालन पर  विशेष बल दिया जाता है

मुख्य कलाकार – सदानंद कृष्ण कुट्टी ,गोपीनाथ, कोट्टक्कल ,शिव रमन, रीता गांगुली आदि।

4) मोहिनीअट्टम –

केरल का प्रमुख नृत्य , महिलाएं इसका एकल  प्रदर्शन करती हैं ।

मान्यता अनुसार भस्मासुर वध के लिए विष्णु द्वारा मोहिनी रूप धारण करने की कथा से इसका विकास हुआ है ।

इसमें भरतनाट्यम का लालित्य व  कथकली का वीरता का भाव पाया जाता है ।

नर्तकी द्वारा नृत्य की गति पर नियंत्रण रखना इस नृत्य की मुख्य विशेषता है।

मुख्य कलाकार -वैजयंती माला, हेमा मालिनी, सुनंदा नायर, गोपीका वर्मा, पल्लवी कृष्ण आदि।

(5) ओडीसी-

यह ओडीशा का शास्त्रीय नृत्य है ।प्रारंभ में  महरीस नामक संप्रदाय द्वारा यह नृत्य किया जाता था ।12 वीं सदी में वैष्णववाद का प्रारंभ पड़ने पर भगवान जगन्नाथ इसके  केंद्र बिंदु बने ।

ब्रह्मेश्वर व कोणार्क के सूर्य मंदिरों के शिलालेखों में इस नृत्य का उल्लेख मिलता है ।

इसमें त्रिभंग पर ध्यान केंद्रित किया जाता है जिसका अर्थ है शरीर को तीन भागों में बांटना ।

इस नृत्य की मुद्राएं व अभिव्यक्तिया भरतनाट्यम से मिलती-जुलती हैं ।

इस नृत्य में प्रयुक्त होने वाले छंद संस्कृत नाटक गीतगोविंदम (जयदेव कृत ) से लिए जाते हैं।

मुख्य कलाकार –  मिनाली दास ,सोनल मानसिंह, माधुरी मुद्गल , अदिति बंदोपाध्याय आदि।

(6).  मणिपुरी –

यह पूर्वोत्तर क्षेत्र की मुख्य नृत्य शैली है जिसे मणिपुर में विशेष लोकप्रिय होने के कारण  मणिपुरी नृत्य कहा गया ।इसमें विष्णु पुराण, भागवत पुराण , गीत गोविंद के कथानको का प्रस्तुतीकरण किया जाता है ।

इसमें तांडव व लास्य  दोनों का समावेश होता है।

 इस नृत्य में घुंघरू का प्रयोग नहीं होता है ।

गुरु नभकुमार ,गुरु विपिन सिंह ,झावेरी बहनों ने इस नृत्य को प्रसिद्धि दिलाई।

पुंग, चोलम, करताल ,चोलम, भंग-ता  इस नृत्य के अनेक रूप हैं ।इसमें शीशों से जड़ा वस्त्र (कामिल) पहनने की प्रथा भी रही है।

(7) कत्थक –

इसका संबंध उत्तर प्रदेश राज्य से है।

कत्थक शब्द का अर्थ तथा को थिरकते हुए कहना है ।

कत्थक का जन्म भी मंदिरों में ही हुआ था किंतु ईरानी व  मुस्लिम प्रभाव से यह दरबारी मनोरंजन तक पहुंच गया ।  इस नृत्य शैली को संगीत के कई घरानों का समर्थन मिला ।यथा – जयपुर घराना , लखनऊ घराना ,बनारस घराना ,रायगढ़ घराना।

 मुख्य कलाकार – लच्छू महाराज , बिरजू महाराज , सितारा देवी , पंडित जय लाल ,सीताराम आदि।

(8)सत्रीय नृत्य –

असम में वैष्णव संत शंकरदेव द्वारा यह नृत्य प्रचलित किया गया।

यह भक्ति आंदोलन से प्रेरित है।

इसमें हाथ के इशारे ,कदमों का प्रयोग , गति व अभिव्यक्ति पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

इस नृत्य को कई विधाओं में बांटा गया है -जैसे अप्सरा नृत्य , बेहतर नृत्य ,चाली नृत्य , दशावतार  नृत्य , मंचोक नृत्य आदि।

सत्रीय नृत्य में शंकरदेव  द्वारा संगीतबध रचनाओं का प्रयोग होता है जिसे बोरगीत कहते हैं ।

संगीत नाटक अकादमी द्वारा 15 नवंबर 2000 को इस नृत्य को शास्त्रीय नृत्य की सूची में शामिल किया गया ।

मुख्य कलाकार  -जतिन गोस्वामी , भयन मोटकर, रामकृष्ण तालुकदार , कृष्णाक्षी कश्यप आदि।

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