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CRS21P: Indian History and Culture

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TP21A21: Early Vedik Period or Rigvedic Era

Malay Barupal June 17, 2021
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प्रारंभिक वैदिक काल (Early Vedik Period)

वैदिक साहित्य

  • वैदिक साहित्य को 5 भागों में विभाजित किया जाता है— संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद तथा वेदांग।
  • वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्थ कराने के कारण वेदों को श्रुति की संज्ञा दी गई है।
  • वेदों की संख्या चार है— ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
  • ऋग्वेद विश्व का प्रथम प्रमाणिक ग्रंथ है।

ऋग्वेद

  • ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से संबंधित रचनाओं का संग्रह है।
  • यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमें 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें कुल 1028 सूक्त हैं।
  • इसकी भाषा पद्यात्मक है।
  • ऋग्वेद में 33 देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है।
  • प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से संबंधित देवी सावित्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है।
  • ‘असतो मा सद्गमय’ वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है।
  • ऋग्वेद की रचना संभवतः पंजाब में हुई थी।
  • ऋग्वेद मंत्र रचयिताओं में स्त्रियों के भी नाम मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं— लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि।

यजुर्वेद

  • यजुः का अर्थ होता है यज्ञ। 
  • यजुर्वेद में यज्ञ विधियों का वर्णन किया गया है।
  • इसमें मंत्रों का संकलन अनुष्ठानिक यज्ञ के समय स्तर पाठ करने तथा नियमों के पालन करने के उद्देश्य से किया गया है।
  • इसमें मंत्रों के साथ-साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है।
  • यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक तथा गद्यात्यक दोनों है।
  • यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं— कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद।
  • कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं है— तैत्तिरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता तथा कठ कपिष्ठल सहिता। 
  • शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दिन तथा कण्व संहिता।
  • यह 40 अध्याय में विभाजित है।
  • इसी ग्रंथ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है। 

सामवेद

  • सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने के उद्देश्य से की गई थी। इसमें 1810 छंद है जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित है।
  • सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है— कौथुम, राणायनीय और जैमिनीय।
  • सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।

अथर्ववेद

  • अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी।
  • इसमें प्राक् ऐतिहासिक युग की मूलभूत मान्यताओं, प्रकृतियों, परंपराओं तथा अंधविश्वास का चित्रण है।
  • अथर्ववेद 20 अध्यायों में संगठित है। इसमें 731 सूक्त एवं 6000 के लगभग मंत्र हैं। इसमें रोग तथा उसके निवारण के साधन के रूप में जादू, टोनों आदि की जानकारी दी गई है।
  • इसमें अनेक प्रकार की औषधि का वर्णन है।
  • अथर्ववेद की दो शाखाएं है— शौनक और पिप्लाद।
  • इसे अनार्यों की कृति मानी जाती है।

ब्राह्मण

  • ब्राह्मण ग्रंथों की रचना संहिताओं के कर्मकांड की व्याख्या करने के लिए की गई थी। यह मुख्यतः गद्य शैली में लिखित है।
  • ब्राह्मण ग्रंथों से हमें बिम्बिसार के पूर्व की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। 
  • ऐतरेय ब्राह्मण में 8 मंडल है और 5 अध्याय हैं। इसे पज्जिका भी कहा जाता है।
  • ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम प्रप्त होते हैं।
  • शतपथ ब्राह्मण में गंधार, शल्य, कैकय, कुरू, पांचाल, कोसल, विदेह आदि का उल्लेख प्राप्त होता है।
  • शतपथ ब्राह्मण ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण ब्राह्मण है।
  • सर्वाधिक परवर्ती ब्राह्मण गोपथ है।

आरण्यक

  • आरण्यक की रचना जंगलों में ऋषियों द्वारा की गई थी।
  • इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रहस्यवाद, प्रतीकवाद, यज्ञ और पुरोहिती दर्शन है।
  • वर्तमान में सात आरण्यक उपलब्ध हैं।
  • सामवेद और अथर्ववेद का कोई आरण्यक नहीं है।

उपनिषद्

  • उपनिषद् प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है।
  • इसमें मुख्यरूप से शाश्वत आत्मा, ब्रह्म, आत्मा-परमात्मा के बीच संबंध तथा विश्व की उत्पत्ति से संबंधित रहस्यवादी सिद्धांतों का विवरण दिया गया है।
  • कुल उपनिषदों की संख्या 108 हैं।
  • ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद से लिया गया है।
  • मैत्रायणी उपनिषद में त्रिमूर्ति और चार्तुआश्रम सिद्धांत का उल्लेख है।

वेदांग और सूत्र साहित्य

  • वेदांग को स्मृति भी कहा जाता है क्योंकि यह मनुष्यों की कृति मानी जाती है।
  • वेदांग सूत्र के रूप में है इसमें कम शब्दों में अधिक तथ्य रखने का प्रयास किया गया है।
  • वेदांगों की संख्या छ: है— 1. शिक्षा – स्वर ज्ञान 2. कल्प – धार्मिक रीति एवं पद्धति 3. निरुक्त – शब्द व्युत्पति शास्त्र 4. व्याकरण 5. छंद – छंद शाज 6. ज्योतिष – खगोल विज्ञान
  • सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग न होने के बावजूद उसे समझने में सहायक है।

कल्प सूत्र— ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक श्रोत सूत्र- महायज्ञ से संबंधित विस्तृत विधि-विधानों की व्याख्याशुल्क सूत्र— यज्ञ स्थल तथा अग्निवेदी के निर्माण तथा माप से संबधित नियम इसमें हैं। इसमें भारतीय ज्यामिती का प्रारंभ रूप दिखाई देता है। धर्म सूत्र— सामाजिक-धार्मिक कानून तथा आचार सहिता है। गृह्य सूत्र— पारिवारिक संस्कारों, उत्सवों तथा वैयक्तिक यज्ञों से संबंधित विधि-विधानों की चर्चा है। होत्रि— ऋग्वेद का पाठ करने वाला उदगात्रि— सामवेद की ऋचाओं का गान करने वाला अध्वर्यु— यजुर्वेद का पाठ करने वाला रिन्वीध— संपूर्ण यज्ञों की देखरेख करने वाला 
ऋग्वैदिक काल

  • इस काल की संपूर्ण जानकारी हमें ऋग्वेद से मिलती है।
  • ऋग्वेद में आर्य निवास के लिए सर्वत्र सप्त सेंधव शब्द का प्रयोग हुआ है।
  • आयों का भौगोलिक विस्तार पंजाब, अफगानिस्तान, राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश या यमुना नदी के पश्चिम भाग तक था।
  • ऋग्वैदिक लोगों को समुद्र की जानकारी नहीं थी।
  • समुद्र शब्द अपार जलराशि का वाचक था।
  • ऋग्वेद में गंगा का एक बार तथा यमुना का तीन बार उल्लेख हुआ है।
  • इस काल में सरस्वती सबसे पवित्र नदी मानी जाती थी।
  • इस काल में एक मात्र पर्वत मूजवंत का उल्लेख मिलता है।
  • ‘धन्व’ शब्द मरुस्थल के लिए प्रयुक्त हुआ था।
  • यदु और तुर्वस इस काल के दो प्रधान जन थे।
  • भरत राजवंश का नाम त्रित्सू था। 
  • दाशराज्ञ युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के किनारे हुआ था। इस युद्ध में भरत जन के राजन सुदास ने राजाओं के संघ को पराजित किया था।
  • सुदास का पुरोहित वशिष्ठ तथा विश्वामित्र दस राजाओं के संघ का पुरोहित था।

राजनीतिक अवस्था

  • ऋग्वैदिक काल में सामान्यतः राजतंत्र का प्रचलन था परंतु राजा का पद दैवीय नहीं माना जाता था। 
  • राजा का पद आनुवंशिक होता था परंतु कबीलाई सभा द्वारा राजा को चुने जाने की सूचना मिलती है।
  • राष्ट्र, जन, विश एवं ग्राम जैसे राजनीतिक संगठन का उल्लेख मिलता है।
  • ऋग्वेद में राजा के लिए सम्राट, राजन, जनस्य, गोप्ता आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है।
  • सभा, समिति, गण तथा विदथ कबीलाई संस्था का ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है।
  • अथर्ववेद में सभा एवं समिति को ‘प्रजापति की दो पुत्रियां’ की संज्ञा दी गई है।
  • सभा एवं समिति राजकार्य में राजा की सहायता करती थी तथा उस पर नियंत्रण भी रखती थी।
  • सभा श्रेष्ठ जनों की संस्था थी जबकि समिति आम धन-प्रतिनिधि सभा थी जिसमें विश या जन के समस्त लोग सम्मिलित होते थे।
  • अथर्ववेद में सभा को एक स्थान पर नरिष्ट (अनुल्लंघनीय) कहा गया है।
  • युद्ध में प्राप्त भेंट और लूट की वस्तु विदथ और गज में बांटी जाती थी।

प्रशासन

  • पुरोहित — राजा का परामर्शदाता
  • सेनानी — सेना-नायक
  • ग्रामणी — ग्राम प्रमुख
  • विशपति — विश का प्रधान
  • भागदुध — कर संग्रहण अधिकारी
  • व्राजपति — चारागाह का अधिकारी
  • कुलपति — वन का अधिकारी
  • अक्षवाप — द्युत अधिकारी, लेखाधिकारी
  • पालागल — राजा का मित्र
  • महिषी — राजा की पत्नी
  • सूत — राजा का सारथी
  • संग्रहीत — कोषाध्यक्ष
  • स्पर्श — गुप्तचर 
  • राजा नियमित सेना नहीं रखता था। युद्ध के अवसर पर जो सेना एकत्र की जाती थी उन्हें व्रात, गण, ग्राम और शर्घ कहा जाता था।
  • इस काल में कोई नियमित कर व्यवस्था नहीं थी। लोक स्वेच्छा से अपनी संपत्ति का एक भाग राजा को भेंट करते थे जिसे ‘बलि’ कहा जाता था। 
  • इस काल में न्याय व्यवस्था धर्म पर आधारित होतो थी। न्यायाधीश का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। सामाजिक परंपराओं का उल्लंघन करने पर दंड दिया जाता था।
  • ऋग्वैदिक प्रशासन मुख्यतः एक कबीलाई व्यवस्था वाला शासन था जिसमें सैनिक भावना प्रधान होती थी।

सामाजिक स्थिति

  • ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार थी। कई परिवार मिलकर ग्राम तथा कई नाम मिलकर ‘विश’ एवं कई विश मिलकर जन का निर्माण करते थे। 
  • ऋग्वैदिक में परिवार के लिए कुल का नहीं बल्कि गृह का प्रयोग हुआ है।
  • पितृसत्तात्मक परिवार वैदिककालीन सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु था। संपूर्ण परिवार का भूमि और संपत्ति पर अधिकार होता था।
  • प्रारंभ में इस काल का समाज वर्गविभेद से रहित था। धीरे-धीरे आर्यों का जनजातीय समाज तीन वर्गों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में विभाजित हो गया। इन तीनों वर्गों में कोई कठोरता नहीं थी।
  • ऋग्वेद में वर्ण शब्द कहीं-कहीं रंग तथा कहीं-कहीं व्यवसाय के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
  • ऋग्वेद के दशम मंडल के ‘पुरुष सूक्त’ के अनुसार ब्राह्मण की उत्पत्ति मुख से, क्षत्रिय की बाहू से, वैश्य की जांघ से तथा शूद्र की पैरों से हुई बताई गई।
  • ऋग्वैदिक समाज में वर्ग या वर्ण या व्यवसाय पैतृक नहीं थे। ऋग्वेद के एक सूक्त के अनुसार एक व्यक्ति स्वयं कवि है, इसका पिता वैद्य है तथा मां चक्की पीसने वाली है।
  • इस काल में परिवार में कई पीढ़ियां एक साथ रहती थी।
  • वर्ण व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित थी।
  • ऋग्वेदकालीन समाज में स्त्रियों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। पुत्री को भी पुत्र की भांति उपनयन, शिक्षा एवं यज्ञादि का अधिकार था।
  • स्त्रियां सभा और समिति में भाग लेती थीं।
  • विधवा विवाह, नियोग प्रथा, अंतर्जातीय विवाह, बहुपत्नीत्व, बहुपतित्व प्रथा का प्रचलन था।
  • बाल विवाह, सती प्रथा तथा पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
  • स्त्रियों को संपत्ति संबंधी अधिकार नहीं थे।
  • आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले स्त्री को ‘अमाजू’ कहा जाता था।
  • इस काल में अस्पृश्यता भी विद्यमान नहीं थी।
  • ऋग्वेद काल में दास प्रथा विद्यमान थी। दास की बजाय दासियों का दान ज्यादा प्रचलित था। 
  • इस काल में लोग मांसाहारी एवं शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे।
  • नमक व मछली का उल्लेख नहीं मिलता है।
  • सूती वस्त्रों को अधिक पसंद किया जाता था यद्यपि रेशमी वस्त्रों की भी जानकारी थी।
  • पोशाक के तीन भाग थे: नीवी— कमर के नीचे पहना जानेवाला वस्त्र, वास— कमर के ऊपर पहना जानेवाला वस्त्र तथा अधिवास— ऊपर से धारण की जाने वाली चादर या ओढ़नी।
  • ऋग्वेद काल में रथ दौड़, आखेट, युद्ध, नृत्य तथा जुआ मनोरंजन के साधन थे।

आर्थिक स्थिति

  • ऋग्वेद काल में आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। ऋग्वेद सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी। 
  • पशु ही संपत्ति की वस्तु समझे जाते थे।
  • गाय को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। गाय से संबंधित शब्दों का प्रयोग बहुलता से किया जाता था, जैसे ‘गविष्टि’ का प्रयोग युद्ध के लिए, ‘गोधूलि’ का प्रयोग समय बतलाने के लिए तथा ‘गोमत’ का प्रयोग धनी व्यक्ति के लिए किया जाता था। 
  • इस काल के लोग लोहे से अपरिचित थे।
  • कृषि कार्यों की जानकारी लोगों को थी तथा यव (जौ) इस काल का एकमात्र फसल थी। 
  • अयस (तांबा) इस काल की मुख्य धातु थी।
  • इस काल के प्रमुख व्यवसायियों में तक्षा (बढ़ई), धातुकर्मी, स्वर्णकार, चर्मकार, वाय (जुलाहे) तथा कुंभकार (कुकाल) थे।
  • इस काल में व्यापार पणि लोगों के हाथ में था।
  • गाय मूल्य की प्रामाणिक इकाई थी। निस्क जो सोने का एक प्रकार का हार होता था, भी लेन-देन का साधन था।

धार्मिक स्थिति

  • ऋग्वेद आर्य बहुदेववादी होते हुए भी ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे। 
  • इस काल में लोगों ने प्राकृतिक शक्ति का मानवीकारण कर पूजा की।
  • यास्क द्वारा ऋग्वेद काल के 33 देवताओं का उल्लेख किया गया है।
  • ऋग्वैदिक आर्यों की देवमंडली तीन भागों में विभाजित थी: अंतरिक्ष के देवता— इंद्र, रुद्र, मरूत, वात्, पर्जन्य, यम, प्रजापति एवं आदिति। आकाश के देवता— धौंस, सूर्य, सवितृ, मित्र, वरुण, पूषण, विष्णु, उषा तथा अश्विन। पृथ्वी के देवता — अग्नि, सोम, बृहस्पति, पृथ्वी, मातरिश्वन, आप, सरस्वती एवं इडा आदि।
  • ऋग्वेद काल में इंद्र सबसे प्रमुख देवता था। यह युद्ध, बादल एवं वर्षा का देवता था। इसे पुरंदर कहा गया है।
  • बोगजकोई अभिलेख में वैदिक देवता इंद्र , मित्र, वरुण और नासत्य का उल्लेख है।
  • इस काल का दूसरा प्रमुख देवता अग्नि था जो देवताओं एवं मनुष्य के बीच माध्यम का काम करता था।
  • ‘ऋतस्य गोपा वरुणा’— अर्थात् वरुण प्राकृतिक घटनाओं का संयोजक तथा सभी देवों के नैतिक नियामक है। 
  • गायत्री मंत्र सवितृ को समर्पित है।
  • सोम वनस्पति का देवता था।
  • पूषण पशुपालन एवं चारागाह का देवता था।
  • उषा, आदिति, निशा, सरस्वती, इडा आदि ऋग्वैदिक काल की देवियां थीं।
  • ऋग्वेद में मंदिर तथा मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं है।
  • देवों की अराधना यज्ञ एवं स्तुति से की जाती थी। यज्ञ सरल तरीके से किया जाता था।
  • इस काल में भौतिक सुखों की प्राप्ति उपासना का मुख्य उद्देश्य था। 
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